राज कपूर के 100 साल पूरे हो गए हैं। 14 दिसंबर 1924 को आज से 100 साल पहले ब्रिटिश इंडिया के पेशावर की आलीशान कपूर हवेली में राज कपूर का जन्म हुआ था। हालांकि यह एक वक्त ऐसा भी था जब कपूर खानदान का फिल्म जगत से कोई ताल्लुकनहीं था। गुलाम भारत के ल्यालपुर (अब फैसलाबाद) में दीवान मुरली माल कपूर तहसीलदार थे। उनके बेटे दीवान बशेश्वरनाथ कपूर इंडियन इंपीरियल पुलिस में ऑफिसर थे। उनकी पेशावर के किस्सा ख्वानी बाजार में बड़ी-सी हवेली थी। 3 नवंबर 1906 को दीवान बशेश्वरनाथ के घर बेटे पृथ्वीराज कपूर का जन्म हुआ। उनके पिता और दादाजी का ल्यालपुर, समुद्री और पेशावर में बड़ा रुतबा था। राज कपूर की फिल्म 'श्री 420 का गाना 'मेरा जूता है जापानी... की लोकप्रियता के किस्से आज भी सुने जाते हैं? क्यों उस पीढ़ी के कई रूसियों को बुढ़ापे में भी ये गीत कंठस्थ हैं? राज कपूर और उस दौर का सिनेमा आखिर दिखा क्या रहा था? जुलाई 24, 1991 को तत्कालीन वित्त मंत्री मनमोहन सिंह ने जब भारत की अर्थव्यवस्था के बंद दरवाजे खोले, तो देश की नई आर्थिक तबीयत को एक चर्चित नाम मिला- उदारीकरण, बाजार और कारोबार को खोलना, इससे जुड़ी नीतियों को उदार और मुक्त बनाना देश को कारोबारी संपर्क के उस रास्ते पर ले जाता है जहां बड़ी-सी दुनिया एक इकाई के रूप में ग्लोबलाइज्ड बन जाती है। भारत में हुए आर्थिक उदारीकरण से भी कई दशक पहले एक हिंदी गीत ने ऐसे भारतीय की कल्पना की, जो देह पर लदी चीजों से ग्लोबल था। गीतकार शैलेंद्र की लिखी- 'मेरा जूता है जापानी, ये पतलून इंग्लिश्तानी, सर पे लाल टोपी रूसी, फिर भी दिल है हिंदुस्तानी सन् 1955 में आई फिल्म श्री 420 के कथानक का हिस्सा है। यह शायद कैमरे की रील पर, काम की तलाश में गांव से शहर पहुंच रहे भारतीयों के संघर्ष और द्वंद्वों की शुरुआती कहानियों में है। मेरा जूता है जापानी की खूबसूरती इस बात में भी है कि इसे कई तरह से समझा जा सकता है। यूं देखें तो भी गलत नहीं होगा कि राज के शरीर पर सब विदेशी है, क्योंकि वो जिस दौर का हिंदुस्तानी है वहां विपन्नता है। बहुत पुराने देश को पीढ़ियों के संघर्षों के बाद नई-नई आजादी मिली है और उसकी जेब खाली है। लोगों का पेट भरने के लिए खेतों में पर्याप्त अनाज भी नहीं उपजता। वो कोई और ही भारत लगता है, जो अपनी जरूरतों के लिए विदेशी मदद पर निर्भर था। उद्योग-धंधे नहीं थे, समाज और देश दोनों ही खेतिहर प्रधान थे, लोग इंग्लैंड की फैक्ट्रियों में बनी पतलून पहनते थे। आत्मनिर्भर भारत अभी नारा नहीं बना, बस आंख की कोर के एक कोने में पनपते सपने का बीज भर है आत्मनिर्भरता। क्या कुछ था, जो हम निर्यात कर सकते थे? दरअसल, इसी दौर में राज कपूर के मार्फत हमने बाहर की दुनिया को जो देना शुरू किया, उसे हमारे सबसे सफल और कारगर निर्यातों में गिना जा सकता है। श्री 420 अकेली फिल्म नहीं, लंबी सूची है- 'आवारा, 'जागते रहो, 'जिस देस में गंगा बहती है और राज कपूर का मैग्नम ओपस 'मेरा नाम जोकर। आजादी के बाद उन शुरुआती सालों में हिंदी सिनेमा, या कथित बॉलीवुड के फ्रेम पर हमने दुनिया को ऐसे तरीके से अपनी कहानी सुनाई, जो लाजवाब है। नया भारत क्या है, कैसे जीता है, कैसे रहता है, क्या सपने देखता है, उसकी दिक्कतें और तकलीफें क्या हैं, उसकी संस्कृृति और परंपराएं क्या सिखाती हैं, ऐसे तमाम पक्ष फिल्मों का हिस्सा बने। हंसाते-रुलाते, गाना सुनाते हुए प्रेम कहानियों, टूटे दिल और हैपी एंडिंग के फॉर्मूले से बने बेशुमार उत्पादों ने हमें दुनिया में पहुंचाया। अपने देश और समाज को विदेशियों तक पहुंचाने का ये जरिया आज सॉफ्ट पावर कहलाता है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत दो बड़े विरोधाभासी दृष्टिकोणों से देखा जा रहा था। असल जिंदगी में जहां देश की संभावनाओं पर संदेह थे, वहीं सिनेमा ने अपने नरम और भाव प्रवण माध्यम से देश की ऐसी तस्वीर पेश की, जो अपेक्षाकृृत काफी मानवीय थी। सिनेमा के परदे पर गरीब किरदारों के भी आदर्श थे, उनकी गरीबी देखकर उनपर हंसने, देश की खिल्ली उड़ाने का नहीं, बल्कि संवेदनशीलता का भाव जगता था।