पर्यावरण के रक्षक के रुप में पहचानी वाली गिद्ध प्रजाति संरक्षण के अभाव में देशभर में विलुप्ति के कगार पर है। लेकिन बयाना-हिण्डौन मार्ग पर शेरगढ़ व सिकन्दरा गांव के पास पहाडि़ों पर पिछले कई वर्षों से गिद्धों की पूरी कॉलोनी बसी हुई है। गिद्धों ने पहाड़ी में ऊंचाई पर कोटरों में अपने आवास बनाए हुए हैं। हालांकि गिद्ध शिकारी पक्षियों की श्रेणी में आते हैं। लेकिन वे वास्तविकता में शिकार नहीं करते हैं। अपितु मृत पशुओं के अवशेषों को खाकर अपना भोजन प्राप्त करते हैं। इसलिए इन्हें अपमार्जक या मुर्दाखोर भी कहा जाता है। हालांकि बीते वर्षों में यहां भी गिद्धों की संख्या में काफी कमी आई है। अभी यहां तकरीबन 50-60 की संख्या में गिद्ध हैं। लेकिन अभी यहां लांग बिल्ड वल्चर प्रजाति के गिद्ध ऊंचे आसमान में उड़ान भरते दिखाई देते हैं। ये प्रकृृति के माहिर सफाईकर्मी भी माने जाते हैं।
गिद्ध मृत पशुओं के अवशेषों को खाकर पर्यावरण को स्वच्छ बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इस प्रकार कई तरह की गंभीर संक्रामक बीमारियों से मनुष्यों की सुरक्षा करते हैं। भारत में पक्षी संरक्षण के लिए काम रही स्वयंसेवी संस्था बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी के अध्ययन में भी सामने आया है कि भारत में लगभग 99 प्रतिशत गिद्ध समाप्त हो चुके हैं। बीते वर्षों में जिस तरह से पर्यावरण का दोहन हुआ है। उससे भी गिद्धों की संख्या काफी कम हुई है। शोधों में सामने आया है कि बीमार होने पर पशुओं को डाइक्लोफेनाक सोडियम दर्द निवारक दवा गिद्धों के लिए घातक सिद्ध हुई है। क्योंकि इस दवा का सेवन करने वाले पशु की मौत होने पर जब गिद्ध उसे खाते तो इससे गिद्धों के आंतरिक अंगों पर विपरीत प्रभाव देखा गया।
राजकीय पशु चिकित्सालय के चिकित्सा अधिकारी डॉ.गिरीश गोयल कहते हैं कि रिसर्च के बाद सरकार ने पशुओं में दवा के रुप में डायक्लोफेनाक सोडियम साल्ट पूरी तरह से बैन कर दिया है। लेकिन इसका दूसरा पहलू भी है। अब पशुपालक अपने पशु की बीमारी व उसके बचने की उम्मीद कम होती देख आनन-फानन में पैसों के लालच में बूचडख़ानों के लिए बेच देते हैं। उधर, प्रकृृति मित्र संस्थान के डॉ. शैलेन्द्र गुर्जर कहते हैं कि वर्तमान में प्राकृृतिक आवास, भोजन की अनुपलब्धता, विष प्रयोग, बिजलीकरण एवं ऐसे ही अन्य कारणों से गिद्ध आज अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं।