उत्तर प्रदेश के बल पर भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) 400 पार का नारा दे रही थी, लेकिन यहां के लचर प्रदर्शन ने पार्टी के सपने को चकनाचूर कर दिया। उत्तर प्रदेश की कुल 80 सीटों में से भाजपा को कुल 33 सीटों पर विजय मिली जबकि उसकी सहयोगी पार्टी राष्ट्रीय लोक दल को दो तथा अपना दल को एक सीट मिली है। यह सबको मालूम है कि दिल्ली की सत्ता का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर गुजरता है क्योंकि यहां सबसे ज्यादा 80 सीटें हैं। सबसे आश्चर्य की बात यह है कि फैजाबाद सीट जहां अयोध्या में रामलला मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा हुई थी, वहां से भाजपा के उम्मीदवार लल्लू सिंह चुनाव हार गए। ऐसा आरोप है कि भाजपा उम्मीदवार लल्लू सिंह ने फैजाबाद के केवल शहरी क्षेत्रों पर ज्यादा फोकस किया जबकि समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार अवधेश प्रसाद ने ग्रामीण क्षेत्रों पर ज्यादा फोकस किया। सपा उम्मीदवार के पक्ष में दलित मतों का ध्रुवीकरण भी एक प्रमुख मुद्दा रहा है। टिकट के बंटवारे के समय पार्टी के कार्यकर्ताओं एवं छोटे नेताओं की अनदेखी भी इस हार के लिए जिम्मेदार ठहरा जा रहा है। भाजपा के संगठन एवं सरकार के बीच तालमेल का अभाव तथा पन्ना प्रमुखों एवं बूथ कमेटियों की सक्रियता में कमी से भी मतदाताओं का विश्वास कम हुआ। विपक्षी पार्टियों ने मोदी सरकार पर संविधान का स्वरूप बदलने तथा आरक्षण को खत्म करने का जो आरोप चुनावी सभा के मंच से लगाया था, उस आरोप को गलत साबित करने में भाजपा के नेता शायद असफल रहे। भाजपा के नेता मतदाताओं को यह समझाने में भी असफल रहे कि उनकी डबल इंजन की सरकार ने जनता के लिए क्या-क्या लाभान्वित योजनाएं शुरू की है। अधिकारियों एवं मंत्रियों की मनमानी भी चुनाव की हार के लिए एक बड़ा कारण बताया जा रहा है। भाजपा ने उत्तर प्रदेश में बड़ी जीत के लिए अपने कल्याणकारी योजनाओं को लाभार्थियों तक पहुंचाने के लिए पार्टी के नेताओं को जो दायित्व सौंपा था, उसे पूरी तरह कार्यान्वित नहीं किया जा सका। चुनाव से पहले टिफिन बैठक, विकसित भारत संकल्प यात्रा एवं मोदी का पत्र वितरित करने की तरह कई कार्यक्रम चलाए गए किंतु उसका भी जनता पर कोई असर दिखाई नहीं दिया। चुनाव से पहले भाजपा ने पिछड़े वर्ग के मतदाताओं को अपने पाले में खींचने के लिए ओम प्रकाश राजभर के नेतृत्व वाली सुहलदेव भारतीय समाज पार्टी (सुभासपा) तथा जयंत चौधरी के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय लोक दल (रालोद) के साथ चुनावी तालमेल किया था। इसके अलावा अनुप्रिया पटेल की अपना दल तथा निषाद पार्टी के साथ भी पहले से ही भाजपा का तालमेल है। भाजपा ने सपा के नेता दारा सिंह चौहान को भी अपनी पार्टी में शामिल किया था। लेकिन ये सभी नेता लोकसभा चुनाव में भाजपा को बढ़त दिलाने में असफल रहे। निषाद पार्टी के प्रवीण निषाद तथा अपना दल के एक उम्मीदवार खुद चुनाव हार गए। ऐसा लगता है कि अखिलेश यादव द्वारा चुनाव जीतने के लिए बनाया गया पीडीए फार्मूला भाजपा की रणनीति पर भारी पड़ गया। ओम प्रकाश राजभर का घोसी, बलिया, चंदौली, गाजीपुर, सलेमपुर, लालगंज एवं आजमगढ़ में अच्छा प्रभाव माना जाता है। लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि ओम प्रकाश राजभर अपने बेटे अरविंद राजभर की सीट भी नहीं बचा सके। इसी तरह उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़, फतेहपुर, अंबेडकरनगर, श्रावस्ती एवं जालौन में कुर्मी मतदाता निर्णायक स्थिति में है। लेकिन अपना दल के नेता अनुप्रिया पटेल राबर्टगंज से अपने पार्टी के उम्मीदवार को बचाने में विफल रही। टिकट देने में की गई मनमानी से भी भाजपा कार्यकर्ता नाराज बताए जाते हैं। इसका असर पार्टी के प्रदर्शन निश्चित रूप से पड़ा है। यही कारण है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, रक्षामंत्री राजनाथ सिंह के जीत का अंतर भी वर्ष 2019 के मुकाबले कम रहा। सात केंद्रीय मंत्री तथा राज्य सरकार के दो मंत्री भी चुनाव हार गए। उत्तर प्रदेश में भाजपा के वोट प्रतिशत में भी सात प्रतिशत की कमी हुई है। अब भाजपा नेतृत्व को इस बात की समीक्षा करनी चाहिए कि उसके लचर प्रदर्शन के पीछे क्या कारण है? फिलहाल भाजपा उत्तर प्रदेश के खराब प्रदर्शन के कारण बैकफुट पर चली गई है।