यह एक सामान्य ही बात कही जाएगी कि किसी क्षेत्र में देश की सरकार कोई विकास परियोजना लेकर आती है, स्थानीय लोग वहां पर्यावरण, जंगल, पेड़, जमीन आदि बचाने के लिए उस परियोजना का विरोध करते हैं। ऐसा विरोध कई बार बड़े आंदोलन में बदल जाता है तो कई बार ऐतिहासिक हो कर रह जाता है। 26 मार्च 1974 को आज के उत्तराखंड के चमोली जिले में एक आंदोलन हुआ जिसमें पेड़ काटने के प्रयास हुए और वहां की स्थानीय महिलाओं ने किसी बड़े नेता के नेतृत्व की जगह खुद अपने ही दम पर सैकड़ों पेड़ों को कटने बचाया और चिपको आंदोलन ऐतिहासिक हो गया। इसमें कोई शक नहीं कि चिपको आंदोलन 1970 के दशक में देश में अपना एक अलग ही प्रभाव छोड़ गया था।
महिलाओं ने इस अनोखे अहिंसक आंदोलन की मदद से जंगलों में पेड़ों की कटाई को रोका था। इसमें गढ़वाल हिमायल के लाता गांव में गौरा देवी के नेतृत्व में केवल 27 महिलाओं के समूह ने यह साहसिक कारनामा कर दिखाया था। दरअसल चमोली में वन विभाग के ठेकेदार पेड़ों की कटाई कर रहे थे जिसका विरोध स्थानीय लोग कर रहे थे उनका दावा था कि इन पेड़ों पर उनका परंपरागत अधिकार है।
आंदोलन की शुरुआत 1973 के शुरू में हुई जब उत्तराखंड क्षेत्र के चमोली जिले के भट्ट और दशोली ग्राम स्वराज्य मंडल के नेतृत्व में ग्रामीणों ने एक निजी कंपनी को 14 पेड़ों को काटने से रोका। 24 अप्रैल को हुई इस घटना के बाद दिसंबर एक बार फिर ऐसा हुआ जब गांव वालों ने गोपेश्वर से करीब 60 किमी दूर फाटा रामपुर के जंगलों में उसी कंपनी के एजेंटों को फिर पेड़ों की कटाई से रोका। 1974 में वन विभाग में जोशीमठ ब्लॉक के रैणी गांव केपास पेंग मुरेंडा जंगल को कटाई के लिए चुना। यहां 680 हेक्टेयर से अधिक जंगल की नीलामी की गई थी।
इसी की कटाई रोकने केलिए रैणी गांव की महिलाओं ने महिला मंडल की प्रधान गौरा देवी के नेतृत्व में पेड़ों पर चिपक कर अपना विरोध प्रदर्शन किया। महिलाओं ने पेड़ काटने आए लोगों को समझाने की कोशिश की लेकिन जब वे नहीं माने तो महिलाओं ने पेड़ों से चिपक कर उन्हें चुनौती दे डाली कि पेड़ काटने से पहले उन्हें काटना होगा। यह अहिंसावादी तरीका बहुत ही कारगर रहा और ठेकेदार और उनके कटाई करने वाले मजदूरों को निराश होकर खाली हाथ जाना पड़ा। इस अनोखे तरीके से पेड़ों को बचाने की तरीके ने इस आंदोलन को देश भर में रातोंरात प्रसिद्ध कर दिया और जब महिलाओं ने वन विभाग के अधिकारियों के सामने अपनी समस्या रखी तो उन्हें ध्यान से सुनना पड़ा और उन पर काम भी करना पड़ा।
बहुत से लोग इसे ही चिपको आंदोलन की शुरुआत भी मानते हैं। चिपको आंदोलन भारत के उत्तर हिमालय के इलाकों के लिए एक मिसाल बन गया है जो आज भी पर्यावरण के लिए यहां के लिए लिए जाने वाले फैसलों को प्रभावित करता है। आज भी यहां भूस्खलन, भूकंप, बाढ़ आदि से भारी नुकसान होते देखने को मिल रहे हैं जो चिपको आंदोलन की याद दिलाते हुए पर्यावरण के प्रति और ज्यादा संवेदनशील होने को प्रेरित ही नहीं बल्कि मजबूर तक कर रहे हैं।