राजस्थान का तो यह अत्यंत विशिष्ट त्योहार है। इस दिन भगवान शिव ने पार्वती कोतथा पार्वती ने समस्त स्त्री समाज को सौभाग्य का वरदान दिया था। गणगौर माता की पूरे राजस्थान में पूजा की जाती है। राजस्थान से लगे ब्रज के सीमावर्ती स्थानों पर भी यह त्योहार धूमधाम से मनाया जाता है। गणगौर पर्व खासतौर पर राजस्थान में मनाया जाता है। यह पर्व विशेष रूप से महिलाएं मनाती हैं। इसमें गुप्त रूप से सुहागिनें व्रत रखती हैं। यानी पति को बताए बिना ही महिलाएं उपवास रखती हैं।
नवरात्र के तीसरे दिन यानी कि चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की तीज को गणगौर माता (मां पार्वती) की पूजा की जाती है। पार्वती के अवतार के रूप में गणगौर माता व भगवान शंकर के अवतार के रूप में ईशर जी की पूजा की जाती है। प्राचीन समय में पार्वती ने शंकर भगवान को पति (वर) रूप में पाने के लिए व्रत और तपस्या की। शंकर भगवान तपस्या से प्रसन्न हो गए और वरदान मांगने के लिए कहा। पार्वती ने उन्हें ही वर के रूप में पाने की अभिलाषा की। पार्वती की मनोकामना पूरी हुई और पार्वती जी की शिवजी से शादी हो गई। तभी से कुंवारी लड़कियां इच्छित वर पाने के लिए ईशर और गणगौर की पूजा करती है। सुहागिन स्त्री पति की लंबी आयु के लिए यह पूजा करती है। गणगौर पूजा चैत्र मास के कृष्ण पक्ष की तृतीया तिथि से आरंभ की जाती है। सोलह दिन तक सुबह जल्दी उठकर बगीचे में जाती हैं, दूब व फूल चुन कर लाती हैं। दूब लेकर घर आती है उस दूब से दूध के छींटे मिट्टी की बनी हुई गणगौर माता को देती है। थाली में दही पानी सुपारी और चांदी का छल्ला आदि सामग्री से गणगौर माता की पूजा की जाती है। सुहाग की निशानियों का पूजन कर गौरी जी को अर्पित करना चाहिए। कथा श्रवण के पश्चात माता पार्वती यानी गौरी जी पर अर्पित किए सिंदूर से महिलाओं को अपनी मांग भरनी चाहिए। अविवाहित कन्याओं को गौरी जी को प्रणाम कर उनका आशीर्वाद प्राप्त करना चाहिए। उन्हें सजा-धजा कर पालने में बैठाकर नाचते गाते शोभायात्रा निकालते हुए विसर्जित करें। उपवास भी विसर्जन के बाद इसी दिन शाम को खोला जाता है। मान्यता है कि गौरी जी स्थापना जहां होती है वह उनका मायका होता है और जहां विसर्जन किया जाता है वह ससुराल।