6 जुलाई 2025 को जब दलाई लामा 90 वर्ष के हुए, तो यह सिर्फ  एक आध्यात्मिक गुरु का जन्मदिन नहीं था, बल्कि यह दिन था- शांति, करुणा, सहिष्णुता और वैश्विक मानवता के सबसे बड़े प्रतीक के जीवन का उत्सव। हिमालय की शांत वादियों में बसे धर्मशाला की पहाड़ियों में जब भिक्षुओं ने उनके लिए प्रार्थनाएं कीं, मंदिरों में घंटियां बजीं तो दुनियाभर से अनुयायियों का सैलाब उमड़ा, तब यह स्पष्ट हो गया कि दलाई लामा सिर्फ  एक नाम नहीं, बल्कि एक आदर्श बन चुके हैं। अपने संदेश में जब दलाई लामा ने खुद को साधारण बौद्ध भिक्षु कहा तो यह उनके महान व्यक्तित्व की सबसे बड़ी पहचान बन गई। विनम्रता उनकी ताकत है। उनका यह कहना कि भौतिक विकास जितना जरूरी है, उतनी ही मानसिक शांति भी आवश्यक है, आज की भागदौड़ और तनाव से भरी दुनिया के लिए सबसे मौलिक संदेश है। दलाई लामा के जीवन का हर अध्याय संघर्ष, साहस और सेवा से भरा है। 1959 में जब वे तिब्बत से पलायन कर भारत पहुंचे थे, तो उनके पास कोई सत्ता नहीं थी, सिर्फ सिद्धांत थे और वही सिद्धांत आज भी तिब्बत के लाखों लोगों और उनके अनुयायियों के लिए आशा की किरण हैं। दलाई लामा की भूमिका केवल धार्मिक नहीं, बल्कि एक सांस्कृृतिक और राजनीतिक प्रतिरोध की भी रही है, वह भी पूरी तरह अहिंसक तरीके से। चीन उन्हें एक अलगाववादी मानता है, लेकिन उनके अनुयायी उन्हें शांति का प्रतीक कहते हैं। यह विरोधाभास इस बात को और गहरा बनाता है कि वे एक ऐसी आवाज हैं जिसे सत्ताएं दबा नहीं सकीं। अब जब उन्होंने सार्वजनिक रूप से यह कहा कि वे पुनर्जन्म लेना चाहते हैं और उनके उत्तराधिकारी की खोज पारंपरिक बौद्ध पद्धति से होगी, तो यह चीन की उस महत्वाकांक्षा को चुनौती देता है जिसमें वह दलाई लामा की विरासत पर नियंत्रण चाहता है। यह ऐलान सिर्फ  एक धार्मिक निर्णय नहीं है, यह एक राजनीतिक और सांस्कृृतिक मोर्चेबंदी है-मौन लेकिन अडिग। भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने उन्हें प्यार का स्थाई प्रतीक बताया, जो कि न केवल एक व्यक्तिगत सम्मान है, बल्कि भारत द्वारा तिब्बती संघर्ष के नैतिक समर्थन का संकेत भी। अमरीका जैसे देशों ने भी दलाई लामा और तिब्बती समुदाय के मानवाधिकारों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दोहराई है। यह वैश्विक समर्थन एक संकेत है कि तिब्बत का मुद्दा आज भी अंतर्राष्ट्रीय चेतना में जीवित है। धर्मशाला की सड़कों पर दलाई लामा के पोस्टरों और झंडों से सजी हुई गलियां, दसियों हजारों अनुयायियों की भीड़ और प्रार्थनाओं का गूंजता स्वर- यह सब उस जीवित विरासत की पुष्टि करता है जिसे दलाई लामा ने न केवल जिया है, बल्कि आगे बढ़ाया है। उनकी उम्र भले ही 90 हो गई हो, लेकिन उनका उत्साह, विचार और प्रभाव समय से कहीं आगे है। उनका यह विश्वास कि वे 110 या 130 वर्ष तक जी सकते हैं, सिर्फ  स्वास्थ्य का संकेत नहीं, बल्कि एक आशा का वादा है। उनकी घोषणा कि वे पुनर्जन्म लेना चाहते हैं और यह कि उनका उत्तराधिकारी पारंपरिक तरीके से चुना जाएगा, तिब्बती परंपराओं की रक्षा की दिशा में एक साहसी कदम है। यह दुनिया को यह बताने जैसा है कि तिब्बत की आत्मा आज भी जीवित है। दलाई लामा का जीवन हमें यह सिखाता है कि दुनिया को बदलने के लिए हथियारों की नहीं, विचारों की जरूरत होती है। वह हमें यह याद दिलाते हैं कि सबसे बड़ी शक्ति किसी को हराने में नहीं, उसे समझने में है। और यही कारण है कि उनका 90वां जन्मदिन केवल उनका नहीं, हम सभी का उत्सव बन गया है। आज जब दुनिया विभाजन, संघर्ष और ध्रुवीकरण के दौर से गुजर रही है। ऐसे में उनका जन्मदिन प्रासंगिक बन गया है।