भारतीय राजनीति में हिंदू धर्म के अनुयायी अब निर्णायक भूमिका में आते जा रहे हैं हालांकि यह स्थिति अभी बराबर की है। जितने लोग हिंदू धर्म के गौरवशाली इतिहास को आधार मानकर हिंदुत्ववादियों के साथ खड़े हैं उतने ही लोग हिंदुत्ववादी विचारधारा के विरोध में उन लोगों के साथ हैं जिन्हें सेक्युलर कहा जाता है। भारत के स्वतंत्रता इतिहास के प्रारंभिक दौर में देश में इस तरह का कोई विभाजन नहीं था। हिंदू , मुस्लिम, सिख और ईसाई एक-दूसरे के प्रति न तो इतने सशंकित थे और न ही एक-दूसरे में भेद करते थे। वैसे देखा जाए तो हिंदू ही विश्व की एकमात्र कौम है जो अपने उदारवादी सिद्धांतों के आधार पर नैसर्गिक रूप से धर्मनिरपेक्ष है, लेकिन 1947 के बाद के तीन-चार दशकों को छोड़ दें तो बाद के काल में हिंदुओं की उपेक्षा और दूसरे धर्म के लोगों के तुष्टीकरण ने हिंदुओं को हाशिए पर खड़ा करने का काम किया। जिस संविधान में हिंदू देवी-देवताओं के चित्रों को स्थान मिला जिसमें बिना कहे सभी धर्मों को पर्याप्त सम्मान दिया गया उस संविधान में संशोधन कर धर्मनिरपेक्ष शब्द जोड़कर देश की राजनीतिक दिशा को मोड़ने का कुटिल कृृत्य किया गया। यह सब राजनीतिक स्वार्थ की पूर्ति के लिए किया गया। कुटिल राजनीति का इससे बड़ा और निम्न स्तर का कृृत्य और क्या हो सकता है कि 26/11 मुंबई आतंकी हमले के बाद यह प्रचारित करने का प्रयत्न किया गया कि इस घटना में आतंकवादी हिंदू थे। इसी आधार पर आतंक को भगवा आतंकवाद का नाम दिया गया। कथित भगवा आतंकवाद न केवल प्रचारित किया गया बल्कि बड़ी सफाई से इस विचार को स्थापित करने की कोशिश की गई। कई प्रतिष्ठित कांग्रेसी राजनेता देशभर में घूम-घूम कर भगवा आतंकवाद का ढोल पीटने लगे थे। यही नहीं भगवा आतंकवाद पर पुस्तकें भी लिखी जाने लगी थीं और शानदार तरीकों से उनका विमोचन किया जा रहा था। यह तो गनीमत है कि अजमल आमिर कसाब जिंदा पकड़ा गया अन्यथा तो देश के 120 करोड़ हिंदू इस कलंक से कलंकित होकर अभिशप्त जीवन जीने को बाध्य कर दिए जाते। जो भी हो ईश्वर न्याय करता है। वैसे देखा जाए तो भगवा आतंकवाद के विचार ने ही हिंदुओं को सचेत करने का काम किया। यदि यह थोथी अवधारणा आकार नहीं लेती तो हिंदुओं में जागृति भी नहीं आती। 2008 के 6 साल बाद 2014 में भाजपा के उत्कर्ष ने हिंदुओं में जिस आत्मगौरव की स्थापना की उसने तथाकथित सेक्युलर वादियों की नींद हराम कर दी जो आज तक जारी है। मोदी, योगी, अमित शाह और कई अन्य राजनेताओं ने हिंदुओं को अपने धर्म के अनुसार आचरण करने की प्रेरणा दी। देश में कांग्रेसी नेता वोट बैंक की खातिर इफ्तार पार्टी में जाना गौरव की बात समझते थे और हिंदुओं के धार्मिक आयोजनों में जाना सांप्रदायिक समझते थे वे जनेऊ पहनने और मंदिर मंदिर जाने को मजबूर हुए। यथा राजा तथा प्रजा के सिद्धांत ने हिंदुओं में जो चेतना जागृत की वह आज किसी से छिपी नहीं है।

हिंदू विरोधी राजनीति के पुरोधा, वर्ग विशेष को खुश करने के चक्कर में पड़कर आज मरणासन्न स्थिति में पहुंचते दिख रहे हैं। देश के हर कोने में हिंदुओं के जागृत हो जाने के प्रमाण बिखरे पड़े हैं। देश की राजनीति की दशा और दिशा दोनों में आमूल चूल परिवर्तन दिख रहा है। जिस कांग्रेस की सत्ता केंद्र सहित सभी राज्यों में सरकारों के रूप में स्थापित थी आज न केवल केंद्र में 11 सालों से सत्ता से वंचित है बल्कि देशभर में केवल तीन राज्यों में सिमट कर रह गई है। हिंदू जागृति का इससे बड़ा प्रमाण शायद ही कोई होगा। यही नहीं इसको निरंतरता प्रदान करने में उन राज्यों में भी गंभीर और सशक्त प्रयत्न किए जा रहे हैं जहां हिंदू तो बड़ी संख्या में हैं किंतु राज्य की राजनीति में हिंदू विरोधियों की तूती बोलती है। ऐसा ही राज्य तमिलनाडु है जहां धर्मनिरपेक्षता के नाम पर हिंदुओं को गाली दी जाती है। जहां सनातन को समूल नष्ट करने की इच्छा जाहिर की जाती है। 2 सितंबर 2023 को एक कार्यक्रम में तमिलनाडु के उपमुख्यमंत्री उदय निधि स्टालिन ने सनातन धर्म को डेंगू मच्छर, मलेरिया या कोरोना जैसा बताते हुए कहा था कि इसका हमें विरोध नहीं करना है बल्कि इसे समूल नष्ट करना है। यही नहीं ए राजा ने सनातन को एड्स की संज्ञा दी थी। इन बयानों का जिस गंभीरता से विरोध हुआ उसने डीएमके को बैकफुट पर आने को मजबूर कर दिया। यही कारण रहा कि उदय निधि स्टालिन ने सफाई देते हुए कहा था कि मैं किसी धर्म का दुश्मन नहीं हूं। मैं हिंदुओं का विरोधी नहीं सनातन प्रथा के खिलाफ हूं। मैंने सनातन को लेकर जो बातें कहीं वही बातें पेरियार, अन्नादुरई और करुणानिधि भी कहते रहे हैं। इससे स्पष्ट है कि द्रविड़ राजनीति हिंदू विरोध पर ही टिकी हुई है। तमिलनाडु में हिंदुत्ववादी विचारधारा का विरोध होता रहा है। वहां के क्षेत्रीय राजनीतिक दल संपूर्ण समाज को उच्च एवं निम्न में विभाजन कर निम्न वर्ग के समर्थन से सत्ता प्राप्त करते रहे हैं। लेकिन समय करवट ले रहा है। बिखरे हुए या एक-दूसरे को शंका की नजर से देखने वाले हिंदुओं में विभाजन की खाई पाटने की पुरजोर कोशिश की जा रही है। भाजपा उस दिशा में गंभीर प्रयत्न करती दिखाई दे रही है। इसी तारतम्य में उसने के अन्नामलाई जो न केवल आईपीएस रहे हैं बल्कि ईमानदार और जनप्रिय व्यक्तित्व के धनी हैं को लोकसभा चुनाव के पहले कमान सौंप कर अध्यक्ष बनाया था जिसका परिणाम इतना आश्चर्यजनक रहा कि राज्य में अन्नामलाई के नेतृत्व में भाजपा ने 2024 लोकसभा चुनाव में 12 प्रतिशत वोट हासिल की जिसने डीएमके की नींद उड़ा दी। 2026 में राज्य में होने वाले विधानसभा चुनावों में भाजपा को राज्य में अपनी पैठ बढ़ाने के लिए गठजोड़ आवश्यक था, क्योंकि बिना किसी गठबंधन के वह उतना अच्छा परिणाम नहीं ला सकती थी जितना अपेक्षित है। इसलिए उसने एआईएडीएम के साथ के लिए अन्नामलाई को अध्यक्ष पद से हटाने की शर्त मानी। वास्तव में के अन्ना मलाई की पार्टी के प्रति समर्पण की जितनी प्रशंसा की जाए कम है कि उन्होंने पार्टी हित में यह मंजूर कर लिया। जो भी हो भाजपा तमिलनाडु में पैर जमाने के लिए हरसंभव प्रयत्न कर रही है। यह तभी संभव है जब प्रदेश की हिंदू आबादी एकजुट होकर उसके पीछे खड़ी हो। हिंदू एकता को अमलीजामा पहनाने के लिए अभी हाल ही में तमिलनाडु के मदुरै शहर में भगवान मुरूगन मताबलंबियों का एक बड़ा सम्मेलन जिसे हिंदू मुन्नानी संस्था ने आयोजित किया जिसमें हजारों की संख्या में हिंदू एकत्रित हुए। इसे भाजपा के पूर्व अध्यक्ष के अन्नामलाई और आंध्र प्रदेश के उपमुख्यमंत्री पवन कल्याण ने भी संबोधित कर हिंदुओं की एकता पर बल दिया।  निश्चित ही तीन दिन पहले हुआ यह सम्मेलन तमिलनाडु में हिंदुत्ववादी राजनीति की दिशा में मील का पत्थर साबित हो सकता है।