कविता और समाज में बहुत निकट का संबंध होता है। समाज की पीड़ा से ही कवि की अनुभूतियां काव्याकार ग्रहण करती हैं। किसी बड़े रचनाकार को अपनी रचना के लिए बुनियादी जरूरत एक विराट काव्य-संसार की होती है। समाज कवि की अनुभूतियों की वह प्रयोगशाला है जिससे वह संवेदना को अनुभूति के सांचे में ढालकर आकार देता है। नागार्जुन की रचनाएं दरअसल इसी समाज बोध की सृष्टि है। उनकी कविताओं की खासियत है उसमें धड़कता सामाजिक जन-जीवन, आशा, आकांक्षा, हताशा, निराशा की यथार्थ अभिव्यक्ति। जिसका वितान इतना बड़ा है कि उसमें मनुष्य के अलावा प्रकृति, प्रकृति के मध्य रहने वाले जीव-जंतु की जीवंत उपस्थिति है। एक तरफ नागार्जुन 'कटहलÓ को समस्त ऐंद्रियता के साथ सामने रखते हैं दूसरी ओर 'सुअरÓ को 'मादरे हिंद की बेटी कहते हैं तथा 'नेवलाÓ को अपना सहचर मानना और कहीं 'खटमलोंÓ से निर्ब्याज हार स्वीकार लेना नागार्जुन को प्राणी जगत का प्रेमी और जन पक्षधरता का कवि सिद्ध करता है। नागार्जुन की कविताएं सही मायने में धूल-मिट्टी में सने निपूछल लोगों के प्रति उतने ही निश्छल हृदय की कविताएं है। जन-अनुराग उनकी कविता की प्राण-संवेदना है। इसलिए प्रगतिवादी कवि होने के बावजूद नागार्जुन जनवादी कवि हैं। अपनी इस जनवादिता को कवि स्वंय स्वीकारता भी है-
जनता मुझसे पूछ रही है क्यूं बतलाऊं।
जनकवि हूं मैं साफ कहूंगा क्यों हकलाऊं।
नागार्जुन के काव्य व्यक्तित्व में रंचमात्र भी बनावटीपन नहीं है। सच पूछिए तो वो कविता बनाते भी नहीं हैं ये और बात हैं कि जीवन को सुंदर और दुनिया को बेहतर और बेहतर बनाने की कसक उनकी प्रत्येक कविता में दिखाई देती है। उनकी यही ताकत उन्हें लोकतांत्रिक बनाती है और प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी जैसी शक्तिशाली सत्ताधारियों से सवाल-जबाव करने का साहस भी देती है-
जली ठूठ पर बैठ गई कोकिला कूंक,
बा लना बांका कर सकी शासन की बंदूक।।
अपनी शब्द-साधना में कवि शब्दों को कई तरह से साधता है। सत्ता व समाज के मध्य चलने वाले राजनीतिक षड़यंत्र को रचनाकार साधारण शब्दों द्वारा इस तरह पर्दाफाश करता है कि आमजन का सामाजिक विवेक जागृत हो सके। 'तीन बंदर बापू के 'शासन की बंदूक 'आओ रानी हम ढोएगे पालकीÓ 'हरिजनगाथाÓ तमात ऐसी कविताएं है जिनका स्वर जनता को जगाने वाली और सत्ता को चिढ़ाने वाली है। 'प्रेत का बयान कविता की एक बानगी देखिए-
ओ रे प्रेत-
कण्डक कर बोले नरक के मालिक यमराज
सच सच बतला!
कैसे मरा तू ?
भूख से, अकाल से, बुखार कालाजार से ?
नागार्जुन अपनी कविताओं द्वारा सत्ता व शासन पर सीधा प्रहार तो करते ही हैं, गहरा प्रहार भी करते हैं। सच कहा जाय तो उनकी कविता सभ्यता-समीक्षा करती है। लोकतंत्र के भीतर लोक के खिलाफ चलने वाली तंत्र की प्रत्येक यंत्रणा की बारीक छानबीन तो करती ही है साथ ही सत्ता से सैकड़ों सवाल भी पूछती है। नागार्जुन की कविताओं से गुजरते हुए अक्सर इस मुश्किल हालातों से गुजरना होता है। नदी जितनी गहरी होती है ऊपर से उतनी ही धीर और प्रशांत दिखाई पड़ती है। किंतु भीतर बहाव का आवेग बहुत तेज होता है। ठीक वैसे नागार्जुन की कविताओं में भीतरी आवेग साफ दिखाई पड़ता है। जो कवि खुद के प्रति इतना निर्मम हो उसे दूसरों के प्रति भी निर्मम होने का पूरा अधिकार होता है। कहने की आवश्यकता नहीं कि नागार्जुन इसी अधिकार के साथ आज की व्यवस्था पर प्रहार करते हैं। इस प्रहार में धार वहां आती है जहां आवेग शांत होकर व्यंग्य का रूप ले लेता है। उनका व्यंग्य जितना अनुभव सत्य है उतना ही समाज सत्य भी है।
दिल्ली से लौटे हैं कल टिकट मार के।
खिले हैं दांत ज्यों दाने अनार के।
इसी तरह ब्रिटेन सामग्री के भारत आने पर स्वागत की धूम-धाम देखकर कहते हैं कि-
आओ रानी हम ढोएगें पालकी।
यही हुई है राय जवाहर लाल को।
व्यंग्य के इस पैनेपन ने नागार्जुन की कविताओं को तात्कालिक और कालजयी बना दिया वे कभी बासी नहीं हुई। और आज भी प्रासंगिक व तात्कालिक बनी हुई है। 'अकाल और उसके बाद कविता में जो चित्र बिहार का वो खींचते हैं वो समग्र भारत का प्रतिरूप जान पड़ता है। इतनी छोटी सी कविता में संपूर्ण भारत के दु:ख-दर्द को बिना मुलम्मा लगाए दर्ज कर देने का साहस और कौशल नागार्जुन सरीखे जन कवि में ही हो सकता है-
कई दिनों तक चूल्हा रोया चक्की रही उदास ।
कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उसके पास ।
कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गस्त ।
कई दिनों तक चूल्हों की भी हालत रही शिकस्त ।
नागार्जुन ने अनगिनत विषयों पर कविताएं लिखी हैं। उनकी काव्य-यात्रा में समाज का शायद ही कोई कोना हो जो काव्य रूप बनने से शेष बचा हो। लोक-धुन, लोकराग, जन-अनुराग, प्रकृति-चित्रण, किसान संवेदन जाने कितने बिंब चित्र नागार्जुन की कविताओं को जन सरोकारों से जोड़ देती हैं।एक प्रसिद्ध कवि की तरह नागार्जुन तटस्थ होकर लिखने का खतरा उठाने वाले कवि है। उनका जनवाद कही और से लिया गया या ऊपर से ओढ़ा हुआ जनवाद नहीं वरन इसी जमीन से छनकर निकला है। संस्कार भी इसी मिट्टी के हैं। उनकी कविता सच्चे लोकतंत्र की स्थापना के लिए हर संभव कोशिश करती है। और जीवन की समस्त जटिलता को जानने, समझने और उससे दो-चार होने की बात करती है-
नए गगन में नया सूर्य जो चमक रहा है
यह विशाल भूखण्ड आज जो दमक रहा है
मेरी भी आभा है इसमें।।