बाजार की अपनी महिमा है, जिसमें क्रय और बिक्रय दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। एक के बिना दूसरे की परिकल्पना नहीं की जा सकती। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि क्रय और बिक्रय ही बाजार को सही दिशा प्रदान करते हैं। इसलिए फिलहाल बाजार की नई परिभाषा दी जा रही है। नई परिभाषा में अब भारत को बड़ा बाजार नहीं माना जा रहा है, इसकी वजहें साफ है। जनसंख्या के मुताबिक भारत एक बड़ा बाजार है,परंतु यहां उपभोक्ता अपनी संख्या के अनुसार खरीदारी नहीं कर पाते क्योंकि दिनों- दिन उनकी क्रय शक्ति घट रही है,जो निहायत चिंता का विषय है। आमतौर पर भारत को एक बड़े बाजार के रूप में देखा जाता है लेकिन यह बहुत बड़ा बाजार नहीं है और इसमें विस्तार भी नहीं हो रहा है। जब भी विदेशों के साथ भारत के संबंधों की बात होती है तो सबसे पहले कहा जाता है कि भारत इतना बड़ा बाजार है कि सबको उसकी जरूरत है। भारत में लगभग डेढ़ अरब लोग रहते हैं। ऐसे में उसे एक बड़े बाजार के रूप में देखा जाना स्वाभाविक है, लेकिन ताजा रिपोर्टें दिखाती हैं कि भारत का बाजार जितना बड़ा दिखता है, शायद उतना है नहीं। ये रिपोर्टें कहती हैं कि देश की आर्थिक तरक्की अमीरों तक सीमित हो रही है। इससे आय की असमानता बढ़ रही है और दीर्घकालिक स्थिरता पर सवाल उठ रहे हैं। भारत की विकास दर के सामने यह बड़ी चुनौती होगी। ब्लूम वेंचर्स की मानें तो भारत की आबादी बहुत बड़ी है, लेकिन असली उपभोक्ता वर्ग काफी छोटा है। सिर्फ 13-14 करोड़ भारतीय ही उपभोक्ता वर्ग में आते हैं, जिनके पास मूलभूत चीजों के अलावा अन्य खर्च के लिए पर्याप्त पैसे हैं। इसके अलावा 30 करोड़ लोग उभरते वर्ग में हैं, लेकिन उनकी खर्च करने की क्षमता सीमित है। जानकारों का कहना है कि भारतीय लोग अपने अनिवार्य खर्च पर सबसे अधिक पैसे खर्च करते हैं, जो उनके कुल खर्च का 39 प्रतिशत है। इसके बाद आवश्यक खर्च पर 32 प्रतिशत होता है। रिपोर्ट में पाया गया कि भारतीय उपभोक्ताओं ने 2023 में अपने खर्च का 29 प्रतिशत ही मूलभूत जरूरतों के बाहर खर्च के लिए रखा था, जिसमें ऑनलाइन गेमिंग का हिस्सा बाहर खाने और ऑर्डर करने की तुलना में थोड़ा अधिक था। एक शुरुआती स्तर पर कमाने वाले व्यक्ति ने यात्रा पर हर महीने 776 रुपये खर्च किए,जबकि एक उच्च आय वाले व्यक्ति ने 3,066 रुपये खर्च किए। हालांकि, इसमें क्रेडिट कार्ड से भुगतान को शामिल नहीं किया गया है, जिसे कई लोग फ्लाइट टिकट बुक करने के लिए पसंद करते हैं। रिपोर्ट के मुताबिक सबसे ज्यादा चिंता की बात यह है कि उपभोक्ता वर्ग में ज्यादा विस्तार नहीं हो रहा। इसके बजाय अमीर लोग और अमीर होते जा रहे हैं, इसे समृद्धि का गहरा होना कहा जाता है, न कि समृद्धि का बढ़ना। ब्लूम वेंचर्स की माने तो अब आम उपभोक्ताओं के बजाए महंगे उत्पादों पर ध्यान दे रही है। लग्जरी घरों और प्रीमियम स्मार्टफोन्स की बिक्री बढ़ रही है, जबकि किफायती घरों की हिस्सेदारी पांच साल में 40 फीसदी से घटकर 18 फीसदी रह गई है। रिपोर्ट में भारत की अंग्रेजी के अक्षर के-आकार की आर्थिक रिकवरी का भी जिक्र है, इसमें अमीरों की संपत्ति बढ़ रही है,जबकि गरीबों की खरीद शक्ति कम हो रही है। भारत के शीर्ष 10 फीसदी लोगों के पास अब देश की कुल आय का 57.7 फीसदी हिस्सा है, जबकि 1990 में यह 34 फीसदी था। वहीं, निचले 50 फीसदी लोगों की आय का हिस्सा 22.2 फीसदी से घटकर 15 फीसदी रह गया है। मार्सेलस इन्वेस्टमेंट मैनेजर्स की एक रिपोर्ट भी चिंताजनक तस्वीर पेश करती है। रिपोर्ट बताती है कि भारत का मध्य वर्ग, जो उपभोग का मुख्य चालक था,अब संघर्ष कर रहा है। स्थिर वेतन और महंगाई ने उसकी आर्थिक स्थिति कमजोर कर दी है। पिछले 10 वर्षों में मध्य वर्ग की वास्तविक आय आधी हो गई है, जिससे बचत दर भी गिर गई है। भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) की रिपोर्ट के मुताबिक घरेलू शुद्ध वित्तीय बचत 50 साल के सबसे निचले स्तर पर है। भारत के ग्राहकों की खरीद क्षमता बहुत बड़ी नहीं है। आर्थिक दबाव के कारण कई उपभोक्ताओं ने बिना गारंटी वाले लोन लेकर खर्च जारी रखा,लेकिन अब आरबीआई ने आसान क्रेडिट पर सख्ती कर दी है, जिससे उधार लेना मुश्किल हो गया है। अगर यह सुविधा बंद होती है तो उपभोग पर असर पड़ेगा। यह चिंता इसलिए भी बढ़ रही है क्योंकि भारत की जीडीपी में उपभोग का बड़ा योगदान है।
बाजार की परिभाषा
