हेलो,अस्सलाम वालेकुम। मेरा नाम है आयशा आरिफ खान। मैं जो कुछ भी करने जा रही हूं, अपनी मर्जी से करना चाहती हूं। किसी के जोर, दबाव में नहीं। ये समझ लीजिए कि खुदा की दी जिंदगी इतनी ही होती है। डियर डैड, अरे कब तक लड़ेंगे अपनों से। केस विड्रॉल कर दो। अब नहीं लड़ना। प्यार करते हैं आरिफ से। उसे परेशान थोड़ी ना करेंगे। अगर उसे आजादी चाहिए, तो ठीक है वो आजाद रहे। प्यारी सी नदी, प्रे करती हूं कि ये मुझे अपने आप में समां ले, और मेरे पीठ पीछे जो भी हो, प्लीज ज्यादा बखेड़ा मत करना... यह अल्फाज गुजरात की आयशा के हैं। आयशा अब इस दुनिया में नहीं है। उसने सामाजिक प्रताड़ानाओं से ऊब कर साबरमती नदी में कूद कर अपने प्राण त्याग दिए। उसकी शादी आरिफ नामक युवक से हुई थी। दूसरी घटना उत्तर प्रदेश के हाथरस जिले की है जहां एक बाप को बेटी के साथ छेड़खानी की शिकायत करना भारी पड़ गया। उसे गोलियों से भून दिया गया। हाथरस और साबरमती की दोनों ही घटनाएं हमारे सभ्य समाज की हैं। उसी समाज की जिस पर हम इतराते और इठलाते हैं। हालांकि दोनों घटनाएं इस तरह की कोई पहली नहीं है। पूर्व में भी अनगिनत घटनाएं हो चुकी हैं। समाज में घटती इन घटनाओं से हमने कभी सबक नहीं लिया। सिर्फ कानून की मोटी- मोटी किताबें बनाकर उसे रख दिया। कानूनों का अनुपालन न तो हमारा समाज करता है और नहीं पुलिस करती है। मामला सिर के ऊपर चढ़ जाता है तो सरकार के दबाव में कार्रवाई होती है। सवाल उठता है कि सारा अत्याचार बेटियों पर ही क्यों? देश में चुनाव का मौसम चल रहा है हमारे राजनेता भजन-कीर्तन कर रहे हैं। ढोल मंजीरा बजा रहे हैं। है कोई समुद्र में नहा रहा है तो कोई-कोई जन जातिय समाज में थिरक रहा है। कोई योग में जुटा हुआ है। क्योंकि मौसम चुनावों का है। इन घटनाओं से किसी कोई लेना देना नहीं है, सबको केवल सत्ता की पड़ी है। इस तरह की घटनाएं टीवी डिबेट नहीं बनती हैं। जबकि एक राजनेता का घटिया बयान मिडिया की सुर्खियां बनता है। हम कितने नीचे गिर चुके हैं। देश को आजाद हुए 70 साल का समय बीत गया, लेकिन अभी तक हम सामाजिक कुरीतियों को नहीं मिटा पाए। यह घटना सिर्फ मुस्लिम समाज की नहीं है। दहेज के लिए आज आयशा चढ़ी है तो अनिता इन सामाजिक कुरीतियों का पहले शिकार बन चुकी है। सवाल हमारी आपकी नीतियों विचारधाराओं के साथ नियती का भी है। एक नौजवान युवती आयशा साबरमती की गहरी धाराओं में डूब मरी। जब आरिफ से उसका निकाह हुआ होगा तो उसने भी जिंदगी के सुंदर सपनों जीना चाहा होगा। लेकिन सभ्य समाज की कुरीतियों ने उसे निगल डाला। उसका पति आरिफ इतना कमजोर और बुजदिल था कि अपने परिवार को दहेज मांगने से नहीं रोक सका। गुजरात की मासूम आयशा वीडियो बनाने के बाद साबरमती में छलांग लगानी पड़ी। इस घटना ने पूरे समाज को झकझोर दिया है। हम कितने गिर चुके हैं कि हमारे लिए प्रेम, समर्पण और परिवार नाम की संस्था से कोई मतलब नहीं रह गया है। आरिफ इंसान था उसे स्वस्थ शरीर मिला है। वह दहेज की मांग को ठुकरा सकता था। कितनी दुःखद त्रासदी है हमारे समाज की। हजारों लड़कियां इस तरह की घटनाओं की शिकार होती हैं। आयाशा को भी कोई नहीं जनता, लेकिन उसके वायरल वीडियो ने मरी हुई इंसानियत को बेनकाब कर दिया। हमारे समाज में हाथरस, उन्नाव, बदायूं, निर्भया जैसी अनगिनत घटनाएं घट चुकी हैं, लेकिन हमने क्या सीखा। हमारी संसद मेजें थपथपा कर एक नया कानून बनाती है, लेकिन सामाजिक कुरीति को मिटाने में उसकी कोई दिलचस्पी नहीं दिखती है। हमारी बेटियां समाज में सुरक्षित नहीं है। हाथरस का एक बाप हमारा समाज उसे गोलियों से भून देता है। जिन दरिंदों ने उस बाप को गोलियों से भूना है अगर वही प्रक्रिया उसकी बेटी के साथ अपनाई जाती तो कैसा लगता? घर के मुखिया के चले जाने के बाद उस मां पर क्या गुजरती होगी। बेटी के हाथ पीले कौन करेगा? योगी सरकार ने ऐसे अपराधी के खिलाफ रासुका लगा दिया है, लेकिन सवाल उठता है कि जिसका सब कुछ लुट गया उसका क्या होगा। इस तरह के अपराधियों के खिलाफ तेलंगाना पुलिस जैसा सलूक करना चाहिए। सबको सामाजिक पहल करनी होगी। जब तक समाज अपना दृष्टिकोण नहीं बदलेगा तब तक इस तरह की घटनाएं होती रहेंगी। आयशा और हाथरस की घटना समाज पर कलंक हैं। हमें हिंदू और मुस्लिम की बेटी के फर्क से बचना होगा। कुरीतियों का हवन कर आयशा और हाथरस की बेटियों के लिए सुरक्षित माहौल और समाज का निर्माण करना होगा।
प्रभुनाथ शुक्ल
भदोही, (उ.प्र.)
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