सुधा भार्गव

सोहर गाई जा रही थी। सोहर गीत पीड़ा और आनंद के खट्टे-मीठे अनुभवों से लबालब भरे हुए थे। जच्चा बनी वह बिस्तर पर लेटे प्रसव की पीड़ा को भुला मातृत्व के अनोखे आनंद  में डूबी हुई थी। बधाइयों का तांता लगा हुआ था। बच्चे के पैदा होते ही घर में खुशियों की भरमार जो हो गई थी। अचानक घर से बाहर तालियों की थाप पर बहुत से स्वर गूंज उठे। ‘अम्मा तेरा बच्चा बना रहे। तेरे आंगन में फूल खिलें। हाय हाय कितनी देर हो गई बालक कू तो दिखा दे। नहीं तो घर में ही घुस जाएंगे। फिर न कहियो हम ऐसे हैं।’ पुनः वही तालियों की थाप। अंतिम वाक्य सुनते ही जच्चा कांप उठी। समस्त जोर लगाकर चिल्लाई -‘इनको जो चाहिए दे दो। बच्चा तो अभी- अभी सोया है।’ ‘अइयो रामा तेरे कलेजे का टुकड़ा हमारा भी तो कुछ लगे है। ठप्प ठप्प .. चट्ट चट्ट.. कैसे छोड़ देंगे अपनी जात के को।’ एक बोली ‘ला-ला हमारी गोद में डाल दे।’ दूसरी बोली। बच्चे को उठाए लड़खड़ाती जच्चा बाहर आई। कातर स्वर में बोली-‘न न अभी नहीं। कुछ दिन मेरी गोदी में खेलने दो। कितनी मुश्किल से गोद हरी हुई है। इसके बिना मैं मर जाऊंगी। कैसा भी है मेरा खून है।’ ‘माई  बड़ी-बड़ी  बात न कर। क्या तू इसके लिए अपने पूरे समाज से लड़ सकेगी।’ ‘हां हां क्यों नहीं! आज तुम अपने अधिकारों की बात करती हो तो इससे तो इसका अधिकार न छीनो।  मां -बाप और घर से उसे अलग करके तुम्हें क्या मिलेगा!’ ‘अरी प्रधाना तू क्यों चुप है। कुछ बोलती क्यों नहीं!  तू तो पढ़ी लिखी है। मेरी समझ में इसकी बात धिल्लाभर ना आ रही।’ प्रधाना की साथिन ही हाथ नचाते बोली। प्रधाना दूसरी दुनिया में ही खोई थी। ‘अपने से अलग करते समय मां ने उसे कितना चूमा चाटा था। आंचल फैलाकर रुक्का बाई से दया की भीख मांगी थी। पर वह न पिघली तो न ही पिघली। मां की पकड़ से खीचते हुए वह उसे दूर बहुत दूर ले गई।’ उसकी आंखों से दो आंसू चूं पड़े। ‘अरे किस दुनिया में खो गई।’ उसकी साथिन ने झिंझोड़ते हुए कहा। प्रधाना ने चौंक कर जच्चा की ओर देखा । वह एक मां की तड़पन देख चुकी थी। एक और मां को बिलखता देखने की शक्ति उसमें नहीं थी। उसने एक पल गोद में लिए जच्चा को ऊपर से नीचे तक देखा। फिर दृढ़ता से बोली-‘हम यहां बच्चे को  आशीर्वाद देने आए हैं उसे लेने नहीं।’