आनंद मोहन मिश्र-

लगातार गुलाम रहने के कारण देश की शिक्षा-व्यवस्था पर गहरा असर हुआ। देश की शिक्षा बर्बाद हुई। पहले विदेशों से विद्यार्थी अध्ययन करने के लिए भारत आते थे। मगर दासता काल में भारतीय ही उच्च शिक्षा के लिए विदेश जाने लगे। अतः भारतीय विद्यार्थियों का अध्ययन के लिए विदेश जाना देश में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा संस्थानों की कमी के कारण प्रारंभ हुआ। साथ ही जिन परिवारों के पास साधन था वे अपने बच्चों को अध्ययन के लिए विदेश शान-शौकत के कारण भी भेजते रहे हैं। अर्थशास्त्र का सिद्धांत मांग-आपूर्ति अंतराल का भी योगदान इस कड़ी में रहा है। लेकिन पिछले ठीक दो वर्षों का इतिहास देखें तो पाते हैं कि अब विदेश जाने वालों को सोचना पड़ रहा है। कोरोना महामारी के कारण वुहान से भारतीय विद्यार्थियों को लाया गया। उन्हें संगरोध अवधि में रखा गया। अभी हाल ही में यूक्रेन-रूस युद्ध में तो और भी विकट परिस्थिति आ गई। युद्ध प्रारंभ हो गया तथा हमारे विद्यार्थी यूक्रेन में फंस गए। किसी प्रकार कूटनीतिक प्रयासों से उन फंसे हुए विद्यार्थियों को सरकार वापस लाने में कामयाब हुई। अतः अब भारतीय संस्थानों को प्रौद्योगिकी, चिकित्सा और अन्य विषयों सहित व्यावसायिक पाठ्यक्रमों के लिए विद्यार्थियों के समक्ष अधिकाधिक विकल्प प्रस्तुत करने का समय आ गया है। सरकार कुछ ऐसा उपाय करे कि उच्च शिक्षा के लिए हमारे देश के विद्यार्थी विदेश पर निर्भर नहीं रहें। वर्तमान में लगभग 8 लाख विद्यार्थी उच्च शिक्षा के लिए विदेश जाते हैं। वास्तव में यह काफी बड़ी तादाद है। महामारी की शुरुआत से पहले विदेशों में अध्ययनरत भारतीय विद्यार्थी विदेशी अर्थव्यवस्थाओं में 24 बिलियन डॉलर का व्यय कर रहे थे, जो कि भारत के सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 1' है। भारतीय विद्यार्थी रूस, चीन, यूक्रेन, किर्गिस्तान, कजाखस्तान, बांग्लादेश और फिलीपींस का रुख करते रहे हैं। उन्हें भारतीय प्रवासियों का वृहत लाभ ‘सॉफ्ट पावर’, ‘ज्ञान हस्तांतरण’ और भारत आने वाले धन विप्रेषण के रूप में प्राप्त होता है। अपने देश की आधी से अधिक आबादी 25 वर्ष से कम आयु की है और दुनिया के शीर्ष 100 में कोई भी भारतीय विश्वविद्यालय शामिल नहीं है, यह वास्तव में काफी दुःखद स्थिति है। इसके दम पर ही हम नया भारत बनाने का स्वप्न देख रहे हैं। विश्वगुरु बनने का लक्ष्य है। लेकिन शिक्षा में खर्च कम कर रहे हैं। जब देश में साधनों की कमी होगी तो स्वाभाविक है कि महत्वाकांक्षी विद्यार्थी शिक्षा हेतु विदेश का रुख करेंगे। चिकित्सा-शिक्षा के विशेष संदर्भ में भारत के निजी मेडिकल कॉलेजों में एमबीबीएस सीट के लिए भुगतान की तुलना में विदेशों में रहने और शिक्षण शुल्क पर होने वाला खर्च कहीं अधिक वहनीय है। लेकिन अब महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि दिवालिया घोषित हो चुके इन कॉलेजों ने शिक्षण शुल्क के रूप में विद्यार्थियों से लाखों रु. प्राप्त किये थे और अब इन विद्यार्थियों का भविष्य खतरे में पड़ गया है। विदेशों में अध्ययनरत भारतीय छात्र उन देशों में न केवल उच्च शिक्षा के उपभोक्ता हैं, बल्कि उनके मेहमान भी हैं। इस दृष्टिकोण से भारत के लिए यह स्वाभाविक ही होगा कि वह विदेशों में भारतीयों की सुरक्षा हेतु मेजबान देशों द्वारा इसका उत्तरदायित्व ग्रहण करना सुनिश्चित कराए। हमारे देश की सरकार को अंतर्राष्ट्रीय विद्यार्थियों के लिए तत्परता से एक सुरक्षा जाल या ‘सेफ्टी नेट’ तैयार करना चाहिऐ। संकट और आकस्मिकताओं के समय भारतीय विद्यार्थियों के कल्याण को सुनिश्चित करने हेतु मेजबान देशों को बाध्य करने वाले अंतर्राष्ट्रीय समझौतों को सर्वोपरि महत्व दिया जाना चाहिए। देश में उच्च शिक्षा के स्तर को ऊपर ले जाने के लिए उच्च शिक्षा, विशेष रूप से अनुसंधान और विकास में आने वाले वर्षों में निवेश बढ़ाने की तत्काल आवश्यकता है। 

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