उत्तर प्रदेश सहित पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव की रणभेरी बज चुकी है। विभिन्न राजनीतिक पार्टियों के उम्मीदवार तथा स्टार प्रचारक मैदान में उतर चुके हैं। किंतु चुनाव आयोग  द्वारा जनसभाओं एवं वाहनों के जुलूस पर रोक लगाने के कारण चुनाव प्रचार घर-घर जाकर या वर्चुअल मीटिंग कर हो रही है। इस दौरान कोरोना प्रोटोकॉल का पालन करने का भी चुनाव आयोग ने सख्त निर्देश दिया है। विभिन्न राजनीतिक पार्टियों द्वारा शक्ति प्रदर्शन करने का दौर जारी है। नामांकन दाखिल करने का सिलसिला चल रहा है। इन पांचों राज्यों में उत्तर प्रदेश विधानसभा का चुनाव राजनीतिक दृष्टि से काफी अहमियत रखता है। मालूम हो कि इस राज्य में लोकसभा की 80 सीटें हैं। इसलिए सत्ताधारी भाजपा सहित  सभी पार्टियां अपनी जीत सुनिश्चित करने के लिए पूरी ताकत झोंक रही है। ऐसा लगता है कि सुप्रीम कोर्ट तथा चुनाव आयोग द्वारा बार-बार नसीहत दिए जाने के बावजूद राजनीतिक पार्टियां उम्मीदवार चयन के मामले में पिछली गलतियों से सबक लेने को तैयार नहीं हैं। आपराधिक पृष्ठभूमि वाले नेताओं को टिकट नहीं देने की अपील के बावजूद पार्टियां अपनी जीत सुनिश्चित करने के लिए सुप्रीम कोर्ट की सलाह को भी तवज्जो नहीं दे रही हैं। उत्तर प्रदेश में आगामी 10 फरवरी को प्रथम चरण के तहत विधानसभा की 58 सीटों पर होने वाले चुनाव पर नजर डालने से तस्वीर स्पष्ट हो जाती है। प्रथम चरण में कुल 623 उम्मीदवार मैदान में हैं। एडीआर ने 623 में 615 उम्मीदवारों की पृष्ठभूमि खंगालने का काम किया है। एडीआर की रिपोर्ट के अनुसार समाजवादी पार्टी के 75 प्रतिशत उम्मीदवार दागी हैं। इसके बाद राष्ट्रीय  लोक दल के 59 प्रतिशत, भाजपा के 51 प्रतिशत, कांग्रेस के 36 प्रतिशत, बहुजन समाज पार्टी के 34 प्रतिशत तथा आप के 15 प्रतिशत उम्मीदवार आपराधिक पृष्ठभूमि वाले हैं। आंकड़ों के अनुसार कुल 615 में 156 उम्मीदवार ऐसे हैं जिनके खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज हैं। 121 उम्मीदवारों के खिलाफ गंभीर धाराओं के तहत मामले चल रहे हैं। 12 उम्मीदवारों के खिलाफ महिलाओं से अत्याचार करने का मामला दर्ज है। कुछ ऐसे उम्मीदवार हैं जिनके खिलाफ 32-38 मामले दर्ज हैं। इसी तरह  अन्य चरणों में भी राजनीतिक पार्टियों ने आपराधिक पृष्ठभूमि वाले नेताओं को टिकट दिया है। इनका विस्तृत आंकड़ा आना अभी बाकी है। पहले चरण का आंकड़ा देखने के बाद यह स्पष्ट हो गया है कि अन्य चरणों में भी क्या होने वाला है। यह कहानी केवल उत्तर प्रदेश तक ही सीमित नहीं है, बल्कि पंजाब, उत्तराखंड, मणिपुर एवं गोवा में यही स्थिति है। राजनीतिक पार्टियां सैद्धांतिकरूप से राजनीति से आपराधिक तत्वों को खत्म करने का प्रवचन जरूर देती हैं, किंतु टिकट के बंटवारे के वक्त सब कुछ भूल जाती है। पिछले कुछ वर्षों से संसद एवं विधानसभाओं में जिस तरह आपराधिक पृष्ठभूमि वाले जनप्रतिनिधियों की संख्या बढ़ रही है उससे भारतीय लोकतंत्र निश्चित रूप से कमजोर हो रहा है। जनता का विश्वास लगातार लोकतंत्र एवं जनप्रतिनिधियों से टूटता जा रहा है। अगर लोकतंत्र की जड़ मजबूत करना है, तो आपराधिक पृष्ठभूमि वाले नेताओं पर हथौड़ा चलाना पड़ेगा। इसके लिए सुप्रीम कोर्ट को और कड़ा रुख अख्तिायार करना पड़ेगा। साथ ही राजनीतिक दलों को भी स्वच्छ छवि वाले नेताओं को टिकट देना होगा।