श्रवण कुमार सांगानेरिया -

‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ वेद वाणी है। ‘सर्वे जन सुखिनो भवन्तु’ भी वेद का ही वाक्य है। इसका तात्पर्य है कि संसार में सभी प्राणी और मनुष्य समृद्ध और सुखी हो, सबका कल्याण हो। भारत देश के ऋषि-मुनियों और साधु-संतों ने सदैव न केवल मानव जाति की, वरन संसार के समस्त प्राणी मात्र के लिए सुख-समृद्धि और शांति की कामना की। प्रत्येक प्राणी के सुख और कल्याण के प्रति उन्होंने अपनी गहन चिंता व्यक्त की। सब लोग शांति और सदभाव के साथ समृद्धि, ऐश्वर्य और सुखपूर्वक जीवन व्यतीत कर सकें इस दृष्टि से हमारे रहन-सहन के लिए अनेक शास्त्र और संहिताएं विकसित किए गए जो वेद, उपनिषद और पुराण आदि हमारे प्राचीन ग्रंथों में समाहित है।

संस्कृृत में वास्तु का अर्थ प्रकृृति, आस-पड़ोस या पर्यावरण से है। वास्तु ‘वस्तु’ से बना है जो किसी भी वस्तु के अस्तित्व का द्योतक है जैसे मकान, शरण स्थल, भवन इत्यादि। शास्त्र का अर्थ संस्कृृत में पद्धति से है। वस्तु का प्रयोग निवास स्थान के लिए और वास्तु का प्रयोग ठीक निवास स्थान के लिए होता है। वस्तु और वास्तु दोनों ही निवास या भवनों के लिए प्रयुक्त होते हैं और दोनों ही शब्द समानार्थक शब्दों की सूची में हैं। कुछ विद्वानों का मत है कि वास्तु का वास्तव में संस्कृृत के मूल शब्द वास से जन्म हुआ है। वास अर्थात रहना या वास करना है, उदाहरणार्थ प्रवास, प्रवासी भारतीय। वास्तुशास्त्र प्राचीन कला व विज्ञान है, जिसमें भवन-निर्माण हेतु नियम एवं परिपाटी है। इससे व्यक्ति और प्रकृृति के मध्य एकरूपता व संतुलन सुनिश्चित किया जा सकता है, जिससे संपूर्ण शांति, स्वास्थ्य, धन-संपदाओं की प्राप्ति होती है।

यह कहावत यह भी प्राचीन काल से प्रचलित है कि ‘यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे’, अतः भवन निर्माण में मूल तत्वों का क्या महत्व है इसे अनेक प्राचीन ग्रंथों में समझाने का प्रयास किया गया है। 

पृथ्वी तत्व : वास्तुशास्त्र में भूखंड के अच्छे चयन में भूखंड का आकार एवं भूखंड किसी दिशा में स्थापित है, महत्वपूर्ण माना गया है। आमतौर पर यदि भूखंड वर्गाकार, आयताकार एवं गोलाकार है तो इसे उत्तम श्रेणी में माना गया है। भूखंड की ढलान एवं भूखंड में पानी का बहाव किस ओर है और भूखंड बीच में उठा हुआ है तो यह उत्तम श्रेणी में आएगा, क्योंकि पूर्व में उदय होने वाले सूर्य की रश्मियों का लाभ भवन में मिलेगा एवं उत्तरीय ध्रुव से प्रवाहित होने वाली चुंबकीय तरंगों का प्रवाह निरंतर बना रहेगा।

जल तत्व : भूखंड के किस दिशा में स्वच्छ जल का स्त्रोत हो इसके लिए विधान निहित है। उपयोग में आने वाले स्वच्छ जल दिन में सूर्य की किरणों से प्रभावित होता है और रात्रि में चंद्रमा की किरणों से प्रभावित होता है तो इस तरह के जल से निरोगता प्राप्त होती है। पानी का स्त्रोत उत्तर, पूर्व या उत्तर-पूर्व में श्रेष्ठ माना गया है और गंदे जल का निकास उत्तर पश्चिम में उचित बताया गया है।

अग्नि तत्व : वास्तुशास्त्र में भूखंड के दक्षिण-पूर्व भाग आग्नेय कोण कहलाता है, अतः इस भाग में अग्नि से संबंधित सभी कार्य उचित बनाए गए हैं - जैसे रसोई घर, बायलर, ट्रांसफार्मर आदि। 

वायु तत्व : यह महत्वपूर्ण है कि भवन में निरंतर शुद्ध वायु का प्रवाह बना रहे। अतः नियमों के अंतर्गत भवन निर्माण योजना में नियम बनाए गए हैं कि पूर्व दिशा एवं उत्तर दिशा का भाग अधिक खुला रहे तथा सतह नीची रहे, जिससे प्रातःकालीन सूर्य का प्रकाश एवं शुद्ध वायु निरंतर प्राप्त होती रहे।

आकाश तत्व : भवन में आकाश का तात्पर्य आंगन से है। भूखंड का मध्य भाग ब्रह्म का स्थान माना गया है जिसे खुला रखा जाता है। इसलिए प्राचीन भवनों में मध्य में आंगन की प्रथा है। इससे पूरे मकान में हवा का बहाव ठीक रहता है, जिससे शुद्ध वायु निरंतर मिलती रहती है एवं दूषित वायु भवन से निकलती रहती है। खुले आंगन से ही प्राकृृतिक ऊर्जा का स्त्रोत, सूर्य की किरणों के माध्यम से हमें प्राप्त होता है।

अतः वास्तुशास्त्र के सिद्धांतों के अनुसार भवन निर्माण किया जाए तो मनुष्य के भाग्य की स्थिति बदल सकती है और कहा भी गया है ‘मनुष्य अपनी दिशा में परिवर्तन कर अपनी दशा बदल सकता है।’