मार्गशीर्ष मास की पूर्णिमा तिथि को दत्तात्रेय जयंती या दत्त पूर्णिमा के रूप में मनाया जाता है। ईश्वर व गुरु दोनों के रूप समाहित होने के कारण इन्हें श्री गुरुदेव दत्त भी कहा जाता है। भगवान दत्तात्रेय ने 24 गुरुओं से शिक्षा प्राप्त की थी। अगहन मास की पूर्णिमा को दत्त पूर्णिमा कहा जाता है। इस बार ये तिथि 18 दिसंबर, शनिवार को है। शास्त्रों के अनुसार, भगवान दत्तात्रेय ब्रह्मा, विष्णु, महेश तीनों का स्वरूप हैं। मान्यता है कि भगवान दत्तात्रेय ने 24 गुरुओं से शिक्षा प्राप्त की थी। इन्हीं के नाम पर दत्त संप्रदाय का उदय हुआ। पूजा का शुभ मुहूर्त- पूर्णिमा तिथि प्रारम्भ :18 दिसंबर, शनिवार सुबह 07.24 बजे से शुरू, पूर्णिमा तिथि समाप्त -19 दिसंबर, रविवार सुबह 10.05 बजे समाप्त। दत्तात्रेय जयंती की पूजा विधि : दत्तात्रेय जयंती के दिन सुबह जल्दी उठकर स्नान करें और स्वच्छ वस्त्र पहनें। इसके बाद पूजा के स्थान पर साफ सफाई करें और गंगाजल का छिड़काव करें। इसके बाद एक चौकी रखकर उस पर साफ कपड़ा बिछाएं और उस पर भगवान दत्तात्रेय की तस्वीर स्थापित करें। इसके बाद भगवान दत्तात्रेय को धूप, दीप, रोली, अक्षत, पुष्प आदि अर्पित करें। इसके बाद भगवान दत्तात्रेय की कथा पढ़ें और अंत में आरती करें और प्रसाद बांटें। भगवान दत्तात्रेय की कथा- एक बार महर्षि अत्रि मुनि की पत्नी अनसूया के पतिव्रत धर्म की परीक्षा लेने के लिए तीनों देव ब्रह्मा, विष्णु, महेश पृथ्वी लोक पहुंचे। तीनों देव साधु भेष में अत्रि मुनि के आश्रम पहुंचे और माता अनसूया के सम्मुख भोजन की इच्छा प्रकट की। तीनों देवताओं ने शर्त रखी कि वह उन्हें निर्वस्त्र होकर भोजन कराएं। इस पर माता संशय में पड़ गई। उन्होंने ध्यान लगाकर देखा तो सामने खड़े साधुओं के रूप में उन्हें ब्रह्मा, विष्णु और महेश खड़े दिखाई दिए। माता अनसूया ने अत्रिमुनि के कमंडल से निकाला जल जब तीनों साधुओं पर छिड़का तो वे छह माह के शिशु बन गए। तब माता ने देवताओं को उन्हें भोजन कराया। तीनों देवताओं के शिशु बन जाने पर तीनों देवियां (पार्वती, सरस्वती और लक्ष्मी) पृथ्वी लोक में पहुंचीं और माता अनसूया से क्षमा याचना की। तीनों देवों ने भी अपनी गलती को स्वीकार कर माता की कोख से जन्म लेने का आग्रह किया। तीनों देवों ने दत्तात्रेय के रूप में जन्म लिया। तभी से माता अनसूया को पुत्रदायिनी के रूप में पूजा जाता है।