नॉन-वेज दूध बनाम भारतीय संस्कृृति-व्यापार से बड़ी है आत्मा की आवाज। भारत और अमरीका के बीच प्रस्तावित व्यापारिक समझौते में दूध जैसी दिखने वाली एक सरल चीज, आज एक गहरे सांस्कृृतिक टकराव का प्रतीक बन गई है। अमरीका अपने डेयरी उत्पादों के लिए भारतीय बाजार के दरवाजे खोलना चाहता है, लेकिन भारत की ओर से एक शब्द ने इस पूरे मसले को जटिल बना दिया है- नॉन-वेज दूध। भारत में अधिकांश लोग यही मानते हैं कि दूध एक शुद्ध शाकाहारी आहार है- यह गाय, भैंस, बकरी जैसे शाकाहारी जानवरों से प्राप्त होता है। लेकिन अमरीका और अन्य पश्चिमी देशों में स्थिति अलग है। वहां के डेयरी उद्योग में ब्लड मील जैसे उत्पादों का उपयोग होता है जो जानवरों के खून, हड्डी और मांस से तैयार चारा है। इसे दुधारू पशुओं को खिलाया जाता है ताकि उनकी मांस-उत्पादन क्षमता बढ़े। ऐसे पशुओं के दूध को भारत में अब नॉन-वेज दूध कहा जा रहा है, क्योंकि वह पशु, अप्राकृृतिक रूप से मांसाहारी चारा खाकर दूध दे रहे हैं। भारत में गाय केवल एक पशु नहीं है वह आस्था, संस्कृृति और आत्मा का प्रतीक है। उसका दूध केवल पोषण का साधन नहीं, बल्कि धार्मिक रस्मों का हिस्सा है। ऐसे में यदि यह खुलासा हो कि दूध किसी ऐसे पशु से आया है जो मांस और खून खा रहा था तो वह दूध करोड़ों भारतीयों की धार्मिक भावनाओं और सांस्कृृतिक आदर्शों को आहत करेगा। यह सिर्फ शुद्धता का सवाल नहीं है यह आस्था और पहचान का प्रश्न है। अमरीका के लिए यह मांग असंभव सी लगती है, क्योंकि वहां पशु पालन मुख्य रूप से मांस के लिए होता है, दूध तो उसका एक उप-उत्पाद है। मांसाहारी चारा न देना, उनके लिए न केवल लागत बढ़ाने वाली बात है, बल्कि उनके कृृषि मॉडल के खिलाफ है। भारत की डेयरी अर्थव्यवस्था गांव-गांव में फैले छोटे किसानों पर आधारित है। 8 करोड़ से अधिक किसान दूध उत्पादन से अपनी रोजी-रोटी चलाते हैं। यदि सस्ते अमरीकी डेयरी उत्पाद बाजार में उतरते हैं, तो यह सिर्फ दूध की प्रतिस्पर्धा नहीं होगी, बल्कि भारत के संपूर्ण ग्रामीण जीवन तंत्र पर हमला होगा। भारत सरकार की यह मांग जायज है कि यदि अमरीकी डेयरी उत्पाद भारत में आना चाहते हैं, तो यह प्रमाणित किया जाए कि वे शाकाहारी चारे वाले पशुओं से प्राप्त हुए हैं। यह व्यापारिक अड़चन नहीं, बल्कि भारतीय जनमानस के सम्मान का सवाल है। दूसरी ओर अमरीका यदि भारत को एक गंभीर साझेदार मानता है, तो उसे यह समझना होगा कि हर बाजार के अपने सामाजिक और नैतिक मूल्य होते हैं। नॉन-वेज दूध का मुद्दा केवल एक व्यापारिक बाधा नहीं है यह भारत की सांस्कृृतिक पहचान, उपभोक्ता अधिकार और स्थानीय आजीविका की रक्षा का प्रश्न है। जब तक अमरीका भारतीय संवेदनाओं को नहीं समझता और उनके अनुसार व्यापार करने को तैयार नहीं होता, तब तक यह डील अटकती रहेगी। भारत को अपने मूल्यों के साथ कोई समझौता नहीं करना चाहिए, चाहे इसके लिए कोई भी कीमत चुकानी पड़े। क्योंकि व्यापार एक दिन का सौदा है, लेकिन संस्कृृति वह तो आत्मा की गूंज है, जो पीढ़ियों तक चलती है। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि भारत अमरीकी गायों के दूध को अपने उपभोक्ताओं के बीच आने देना नहीं चाहता है। कारण कि भारतीय जनमानस का संबंध गाय और उसके दूध के साथ धाॢमक और सांस्कृृतिक हैं। कोई भी भारतीय व्यक्ति अपने खाद्य को खाद्य की पूॢत अपने धर्म और संस्कृृति से दूर होकर नहीं कर सकता। अमरीका में जरूरत से अधिक दूध का उत्पादन होता है। खपत से अधिक उत्पादन होने के कारण उसे एक नया बाजार चाहिए। भारत एक ऐसा देश है जहां दूध की खपत अन्य देशों से अधिक है। अमरीका भारत को एक उपभोक्ता की नजर से देख रहा है और उसके लिए भारत एक बाजार के सिवाय और कुछ नहीं है, परंतु भारत अमरीकी गायों के दूध को नहीं अपना सकता। क्योंकि अमरीकी गायें मांस से संबंधित चारा को ग्रहण करती हैं।
नॉन वेज मिल्क
