इजरायल के कंधे पर बंदूक रखकर डोनाल्ड ट्रंप अमरीकी वर्चस्ववाद की महिमा को स्थापित करने में लगे हैं। उनका यही बर्ताव पहली बार राष्ट्रपति बनने के बाद ईरान के परिप्रेक्ष्य में रहा था। परमाणु शक्ति संपन्न पश्चिमी देशों को आशंका है कि ईरान परमाणु बम बना लेने के निकट है। यही आशंका इजरायल की है। हालांकि अभी तक इजरायल घोषित रूप में परमाणु शक्ति संपन्न देश नहीं है, लेकिन अमरीका और अन्य पश्चिमी देशों का उसके सिर पर वरदहस्त है। अतएव इजरायल अपनी संपूर्ण शक्ति से ईरान पर हमला कर रहा है। ऐसी भी जानकारी आ रही है कि उसने ईरान के परमाणु केंद्र नतांज पर भी हमला बोल दिया है। कई ईरानी वैज्ञानिक भी हताहत हो चुके हैं। ट्रंप धमकी के लहजे में कह रहे हैं कि हम इस जंग का समापन 'असली अंतÓ के रूप में देखना चाहते हैं, जो केवल संघर्ष विराम में नहीं है। यह असली अंत ईरान को परमाणु समझौते के लिए बाध्य करने के साथ परमाणु कार्यक्रम को पूरी तरह खत्म करने में निहित लग रहा है। या फिर ईरान के 86 वर्षीय सर्वोच्च नेता अयातुल्ला अली खामनेई को सत्ता के शीर्ष पद से पदच्युत कर उन्हीं के वंश के किसी व्यक्ति को नेता बनाना है। इसी परिप्रेक्ष्य में यूएस ने दो लड़ाकू जहाज ईरान के निकट भेज दिए हैं। यूके ने भी इजरायल की मदद के लिए लड़ाकू विमान तैनात किए हैं। फ्रांस भी इजरायल की मदद करने को तत्पर है। साफ है, ईरान के अस्तित्व पर चहुंओर से खतरा मंडरा रहा है।
ट्रंप 2018 में उस ऐतिहासिक परमाणु समझौते से अलग हो गए थे, जिसे बराक ओबामा ने अंजाम तक पहुंचाया था। हालांकि यह संभावना ट्रंप के राष्ट्रपति बनने के बाद से ही बन गई थी। ट्रंप ने चुनाव प्रचार के दौरान इस समझौते का खूब मखौल भी उड़ाया था। ट्रंप को हमेशा यह संदेह बना रहा है कि ईरान समझौते की शर्तों का उल्लंघन कर रहा है। यह आशंका इसलिए पुख्ता दिखाई दे रही थी, क्योंकि ईरान लगातार गैर परमाणु बैलिस्टिक मिसाइलों का परीक्षण कर रहा था। वर्तमान के युद्ध में ईरान इन्हीं मिसाइलों से इजरायल की राजधानी तेल अवीव और अन्य नगरों में भीषण हमले कर रहा है, इससे इजरायल को भारी नुकसान हुआ है। उस समय ओबामा ने ट्रंप के निर्णय को बड़ी भूल बताया था। दरअसल ओबामा को भरोसा था कि समझौते के बाद ईरान ने अपने परमाणु कार्यक्रम में कटौती की थी, लेकिन ट्रंप अंध-राष्ट्रवाद और अमरीकी वर्चस्व को लेकर इतने पूर्वाग्रही हैं कि उन्हें न तो अमरीकी विदेष नीति की फिक्र है और न ही विश्व शांति के प्रति उनकी कोई प्रतिबद्धता दिखाई देती है। इसीलिए यह आशंका जताई जा रही है कि ईरान ट्रंप के दबाव में नहीं आता है तो विश्व शक्तियों के संतुलन बिगड़ सकता है?
ईरान पर लगे प्रतिबंध हटने के साथ ही विश्वस्तरीय कूटनीति में नए दौर की शुरूआत होने लगी थी। ईरान, अमरीका, यूरोपीय संघ और छह बड़ी परमाणु शक्तियों के बीच हुए समझौते ने एक नया अध्याय खोला था। इसे 'संयुक्त व्यापक कार्रवाई योजनाÓ नाम दिया गया था। इसकी शर्तों के पालन में ईरान ने अपना विवादित परमाणु कार्यक्रम बंद करने की घोषणा की थी। बदले में इन देशों ने ईरान पर लगाए गए व्यावसायिक प्रतिबंध हटाने का विश्वास जताया था। प्रतिबंधों के बाद से ईरान अलग-थलग पड़ गया था। इसी दौर में ईरान और इराक के बीच युद्ध भी चला, जिससे वह बर्बाद होता चला गया। यही वह दौर रहा जब ईरान में कट्टरपंथी नेतृत्व में उभार आया और उसने परमाणु हथियार निर्माण की मुहिम शुरू कर दी थी। हालांकि ईरान इस मुहिम को असैन्य ऊर्जा व स्वास्थ्य जरूरतों की पूर्ति के लिए जरूरी बताता रहा था, लेकिन उस पर विश्वास नहीं किया गया। प्रतिबंध लगाने वाले राष्ट्रों के पर्यवेक्षक समय-समय पर ईरान के परमाणु कार्यक्रम का निरीक्षण करते रहे थे, लेकिन उन्हें वहां संदिग्ध स्थिति का कभी सामना नहीं करना पड़ा। अंत में आशंकाओं से भरे इस अध्याय का पटाक्षेप तब हुआ जब अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी ने निगरानी के बाद यह कहा कि ईरान ऐसे किसी परमाणु कार्यक्रम का विकास नहीं कर रहा है, जिससे दुनिया का विनाश संभव हो। ओबामा ने इस समझौते में अहम् भूमिका निभाई थी। किंतु ट्रंप को पहली बार राष्ट्रपति बनने के बाद लगा कि इस समझौते में अमरीका कुछ ज्यादा झुका है। बावजूद उसके कोई हित नहीं सध रहे हैं। ट्रंप की मंशा थी कि ईरान प्रतिबंधों से पूरी तरह बर्बाद हो जाए और अमरीका के आगे घुटने टेक दे। लेकिन ऐसे परिणाम नहीं निकले। पश्चिमी एशियाई देशों की राजनीति में ईरान की तात्कालिक हसन रूहानी सरकार का वर्चस्व कायम रहा। उसने रूस, चीन और भारत के साथ मजबूत द्विपक्षीय संबंध बनाए, जो ट्रंप को कभी रास नहीं आए। ट्रंप की वजह से ही कोरिया प्रायद्वीप में अमरीका की जगहंसाई हुई। दरअसल अमरीका अपनी शक्ति की नींव पर ही कोई संधि करने का आदि रहा है। साफ है कि अमरीका ईरान से करार तोड़कर ऐसे प्रतिबंधों की मंशा पाले था कि ईरान उसकी ताकत के आगे नतमस्तक तो हो ही और यदि भविष्य में समझौता हो तो पूरी तरह एकपक्षीय हो। यह निर्णय इस्लाम और ईसाईयत में टकराव का कारण भी बन सकता है। इस समझौते की प्रमुख शर्ते थी कि अब ईरान 300 किलोग्राम से ज्यादा यूरेनियम अपने पास नहीं रख सकेगा। ईरान अपनी परमाणु सेंट्रीफ्यूज प्रयोगशालाओं में दो-तिहाई यूरेनियम का 3.67 फीसदी भाग ही रख सकेगा। यह शर्त इसलिए लगाई गई थी, जिससे ईरान परमाणु बम नहीं बना पाए। दरअसल यूरेनियम की प्राकृृतिक अवस्था में 20 से 27 प्रतिशत ऐसे बदलाव करने होते हैं, जो यूरेनियम को खतरनाक परमाणु हथियार में तब्दील कर देते हैं। ईरान ने यूरेनियम में परिवर्तन की यह तकनीक बहुत पहले हासिल कर ली थी। इस शंका के चलते उसे न्यूनतम मात्रा में यूरेनियम रखने की अनुमति समझौते में दी गई थी, जिससे वह आसानी से परमाणु बम नहीं बना पाए। सबसे अहम् शर्तों में अंतराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी के निरीक्षकों को परमाणु सेंट्रीफ्यूजन के भंडार, यूरेनियम खनन एवं उत्पादन की निगरानी का भी अधिकार दे दिया गया था। यह शर्त तोड़ने पर ईरान पर 65 दिनों के भीतर फिर से प्रतिबंध लगाने की शर्त भी प्रारूप में दर्ज की गई थी। ईरान को मिसाइल खरीदने की भी छूट नहीं दी गई थी। ईरान के सैन्य ठिकाने भी संयुक्त राष्ट्र की निगरानी में थे। साफ है ईरान ने आर्थिक बदहाली के चलते इन शर्तों को मानने को बाध्य हुआ था। बहरहाल मध्यपूर्व में बढ़ता यह तनाव कहां पहुंचेगा फिलहाल कुछ निश्चित नहीं कहा जा सकता है। क्योंकि जो अमरीका खुद के वर्चस्व के लिए युद्ध की जमीन को रक्त से सींच रहा है, बड़बोले ट्रंप के राष्ट्रपति बनने के बाद न तो रूस और यूक्रेन के युद्ध को रोक सका है और न ही इजरायल और हमास के बीच युद्ध विराम कर पाया है। लिहाजा ट्रंप का यह अहंकार अस्थिर होती दुनिया में वैश्विक संघर्ष को बढ़ावा देने का काम कर रहा है।