पहलगाम में तनाव के बीच जब हर किसी की नजर भारत-पाकिस्तान के संभावित सैन्य टकराव पर थी, उसी समय मोदी सरकार ने चुपचाप जातिगत जनगणना का ऐतिहासिक फैसला लेकर सबको चौंका दिया। केंद्रीय मंत्री अश्विनी वैष्णव ने जानकारी दी कि राजनीतिक मामलों की कैबिनेट समिति ने निर्णय लिया है कि आगामी जनगणना में जाति आधारित आंकड़े भी जुटाए जाएंगे।

यह फैसला ऐसे समय पर आया है जब अक्टूबर-नवंबर 2025 में बिहार विधानसभा चुनाव होने हैं और विपक्ष इसे एक बड़ा मुद्दा बनाने की तैयारी में था।




🔎 इस फैसले के निहितार्थ क्या हैं?

जनगणना के आंकड़े हमेशा से संवेदनशील माने जाते हैं। खाद्य सुरक्षा, राष्ट्रीय सामाजिक सहायता कार्यक्रम, निर्वाचन क्षेत्र परिसीमन जैसी योजनाएं इन्हीं पर आधारित होती हैं। उद्योग जगत, नीति निर्धारक और शोध संस्थान भी इन आंकड़ों का उपयोग करते हैं।

अब तक केवल अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के आंकड़े ही आधिकारिक रूप से दर्ज किए जाते रहे हैं। ओबीसी की वास्तविक जनसंख्या का कोई प्रामाणिक रिकॉर्ड नहीं है — जबकि आरक्षण और अन्य योजनाएं इसी वर्ग के लिए महत्वपूर्ण हैं।






📜 इतिहास और सियासत

1931 की जातीय जनगणना आखिरी बार थी जब भारत में जातियों की गणना हुई थी। मंडल आयोग ने इसी आंकड़े के आधार पर 1980 में रिपोर्ट दी और 1991 में वी.पी. सिंह ने ओबीसी आरक्षण लागू कर राजनीतिक भूचाल ला दिया।

2006 में एसईसीसी (सामाजिक, आर्थिक और जातीय जनगणना) का प्रयास हुआ, लेकिन इसमें जातियों की संख्या 46.80 लाख तक पहुंच गई — जिससे वर्गीकरण मुश्किल हो गया और रिपोर्ट सार्वजनिक नहीं हो पाई।

2011 में कांग्रेस सरकार ने संसद में वादा करने के बावजूद जातिगत जनगणना को अधूरी छोड़ दिया, और अब भाजपा इसे ऐतिहासिक उपलब्धि बता रही है।




🧩 बिहार चुनाव का कनेक्शन

क्या यह फैसला बिहार चुनाव से जुड़ा है?

बिलकुल। नीतीश कुमार पहले ही राज्य में जातीय सर्वे करवा चुके हैं और अब एनडीए में लौट आए हैं। केंद्र सरकार ने न केवल उस सर्वे को स्वीकार किया बल्कि जातिगत जनगणना का फैसला लेकर एक बड़ा चुनावी मुद्दा विपक्ष से छीन लिया है।

भाजपा इसे अपनी पहल बता रही है और कांग्रेस पर इसे लंबे समय तक टालने का आरोप लगा रही है। वहीं विपक्ष इसे अपनी वैचारिक जीत के तौर पर पेश कर रहा है।





🧠 निष्कर्ष

जातिगत जनगणना का फैसला सामाजिक न्याय और नीति निर्धारण के लिहाज से जरूरी है, लेकिन इसके पीछे की राजनीतिक रणनीति को नकारा नहीं जा सकता। भाजपा ने न केवल सामाजिक समीकरणों को साधा है, बल्कि विपक्ष का एजेंडा भी छीन लिया है।

अब देखना यह होगा कि सरकार इस प्रक्रिया को कितनी पारदर्शिता और विश्वसनीयता के साथ पूरा करती है।