आज से 100 साल पहले पढ़ाई तो दूर महिलाओं को बिना इजाजत घर से भी बाहर जाने नहीं दिया था। रुक्माबाई राउत एक भारतीय चिकित्सक और नारीवादी थीं। वह औपनिवेशिक भारत में पहली अभ्यास करने वाली महिला डॉक्टरों में से एक थी। जब रुक्माबाई दो साल की थी तो उनके पिता का निधन हो गया और उनका मां विधवा हो गई। इसके बाद सखाराम अर्जुन से उनकी दूसरी शादी हुई, जिस पर बहुत बवाल हुआ लेकिन वह अपने फैसले पर अडिग रहीं उन्होंने दुनिया के खिलाफ जाकर सखाराम से दूसरी शादी की। सखाराम मुंबई के ग्रांट मेडिकल कॉलेज में वनस्पति विज्ञान के प्रोफेसर के साथ-साथ समाज सुधारक भी थे। उन्होंने रुक्माबाई को सिर्फ पिता का नाम ही नहीं, बल्कि बेशुमार प्यार भी दिया और पढ़ाई के जरिए उन्हें पैरों पर खड़ा करने की कोशिश की। हालांकि 11 साल की उम्र में ही रुक्माबाई की शादी सौतेले पिता के चचेरे भाई व उनसे 8 साल बड़े भीकाजी से हो गई थी। शादी के बाद भी वह अपने माता-पिता के साथ रहती थी क्योंकि शादी से पहले तय हुआ कि वह घरजमाई बनकर रहेंगे और रुक्मा अपनी पढ़ाई पूरी करेंगी। जब रुक्मा 12 वर्ष की हुई तो उनके पति ने गर्भवती होने की इच्छा जाहिर की लेकिन उनके पिता ने मना कर दिया क्योंकि वह रुक्मा को पढ़ाना चाहते थे। इससे भीकाजी नाराज हो गए। इसी बीच उनकी माता का निधन हो गया और वह सखाराम से पूछे बिना अपने परिवार के साथ जाकर रहने लगे। उन्होंने रुक्मा पर भी घर आने का दबाव बनाया, लेकिन उन्होंने मना कर दिया। इसके बाद 1884 में भीकाजी ने बॉम्बे हाईकोर्ट में मुकदमा किया और पत्नी पर वैवाहिक अधिकार देते हुए उन्हें घर भेजने की मांग की। हाईकोट द्वारा भी रुक्माबाई को ससुराल या जेल जाने का आदेश दिया गया। उस समय पूरे भारत में रुक्माबाई का केस बहुत चर्चित हुआ। लोग इस बात में दिलचस्पी ले रहे थे कि क्या रुक्माबाई अदालत का फैसला मानते हुए ससुराल जाएंगी। दरअसल, रुक्माबाई ने तर्क दिया कि उनका विवाह तब हुआ जब वह इसके लिए सहमति देने में असमर्थ थीं इसलिए उन्हें ऐसे विवाह में रहने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता। उनके इस तर्क ने बाल विवाह व महिलाओं के अधिकारों पर लोगों का ध्यान खींचना शुरू किया। मगर, कोर्ट में रुक्माबाई ने कुछ ऐसे तर्क दिए कि अदालत को भी उनका फैसला मानना पड़ा।