नई दिल्लीः फार्मा सेक्टर में दवा की निर्माण लागत से लेकर बिक्री कीमत में भारी अंतर होने का अंजाम आम ग्राहकों को भुगतना पड़ रहा है। ग्राहकों से सामान्य तौर पर 25 से 70 प्रतिशत तक का लाभ वसूला जाता है। वहीं बाजार में तीन प्रतिशत ऐसी दवाइयां बिक रही हैं जिन्हें बनाने में किसी नियम का पालन नहीं किया गया है। आम आदमी को सही कीमत पर वस्तुओं की उपलब्धता सुनिश्चित करने वाली केंद्रीय एजेंसी भारतीय प्रतिस्पर्धा आयोग (सीसीआइ) की रिपोर्ट में इन पहलुओं को उजागर किया गया है। आयोग ने फार्मा सेक्टर के बारे में जानकारी जुटाने के लिए इस रिपोर्ट को तैयार किया है। आयोग ने कहा है कि आम लोगों को सस्ती दवा उपलब्ध कराने के लिए फार्मा सेक्टर में दवा निर्माण के निर्धारित मानदंड के साथ-साथ लाइसेंस देने व अन्य नियमों के पालन में पारदर्शिता की जरूरत है। वहीं एक नेशनल डिजिटल ड्रग डाटा बैंक बनाने के साथ पूरी सप्लाई चेन की गुणवत्ता को सुनिश्चित करना होगा। आयोग का कहना है कि 17.7 प्रतिशत फार्मा बाजार नियामक के तहत काम करता है, लेकिन दवा तक आम लोगों की पहुंच के लिए बाकी के बाजार में प्रतिस्पर्धा की जरूरत है। क्योंकि भारत में लोग इलाज पर जो खर्च करते हैं उनमें से 62 प्रतिशत वे अपनी क्षमता से बाहर जाकर करते हैं। एक ही दवा की कीमत में आसमान-जमीन का अंतरसीसीआइ की रिपोर्ट के मुताबिक एक ही फार्मुलेशन की दवा को अलग-अलग ब्रांड नाम से बेचा जाता है और उसकी कीमत में जमीन-आसमान का अंतर होता है। उदारहण के लिए एमॉक्सिसीलीन और क्लावुलेनिक फार्मुलेशन के 125-500 एमजी टैबलेट को भारत में 217 कंपनियां बेच रही हैं और बाजार में इसके 292 ब्रांड्स हैं। इनमें से कई ब्रांड की कीमत 40 रुपए प्रति छह गोली बताई गई तो कई ब्रांड की कीमत 336 रुपए छह गोली तक है। रिपोर्ट के मुताबिक वैसे ही ग्लिम्पीराइड और मेटफारमिन टैबलेट के टाप ब्रांड के टैबलेट की कीमत प्रति यूनिट 10 रुपए है, वहीं इसी दवा की खरीदारी कम नामी ब्रांड से की जाती है तो उसकी कीमत सिर्फ दो रुपए प्रति यूनिट होती है। रिपोर्ट के मुताबिक दवा के निर्माण के बाद उसकी खरीद बिक्री में भी बाजार में भारी असमानता है।