आम आदमी पार्टी (आप) दिल्ली में मुख्यमंत्री महिला सम्मान योजना और अन्य योजनाओं की घोषणा करके मुश्किलों में पड़ गई है, क्योंकि दिल्ली सरकार ने हाल ही में इन योजनाओं के पंजीयन के खिलाफ सार्वजनिक नोटिस जारी किया है। राजनीतिक सत्ता के वादे के खिलाफ एक सरकारी विभाग की ओर से सार्वजनिक नोटिस जारी किया जाना दिल्ली के अद्वितीय प्रशासनिक ढांचे को प्रदर्शित करता है। हालांकि यह एक अलग बहस का विषय है, लेकिन मुख्यमंत्री महिला सम्मान योजना जैसी योजनाओं की घोषणा क्यों की जाती है यह समझना बहुत मुश्किल नहीं है। योजना के तहत अगर विधानसभा चुनाव के बाद पार्टी सत्ता में वापसी करती है तो दिल्ली की पात्र महिलाओं को  2,100 रुपए प्रतिमाह दी जाएगी। दिल्ली में फरवरी में चुनाव होने की संभावना है। हालांकि चुनाव नतीजों को कई कारक प्रभावित करते हैं, लेकिन माना जाता है कि हाल ही में महाराष्ट्र और झारखंड में हुए विधानसभा चुनावों में ऐसी नकद-हस्तांतरण योजनाओं ने सत्ताधारी दलों को दोबारा सत्ता में आने में मदद की। समाचार पत्रों में प्रकाशित एक खबर के मुताबिक कम से कम 12 राज्य सरकारों ने पहले ही किसी न किसी रूप में इस योजना को लागू कर दिया है। ऐसी योजनाओं की लोकप्रियता को देखते हुए यह विचार करने लायक है कि क्या वे करदाताओं के व्यय पर संतुलन को सत्ताधारी दल के पक्ष में कर देती है और क्या ये समान अवसर उपलब्ध कराने की प्रक्रिया को बाधित करती है। आर्थिक पहलू भी उतना ही गंभीर है। भारत जैसे विकासशील देश में केंद्र और राज्य स्तर की सरकारों का बजट की तंगी से जूझना लाजिमी है। बजट में हमेशा विकास संबंधी मांगें रहती हैं। उदाहरण के लिए भारतीय राज्य को भौतिक और सामाजिक अधोसंरचना में बहुत अधिक निवेश करने की आवश्यकता है। ऐसा न केवल देश की उत्पादक क्षमता बढ़ाने के लिए जरूरी है बल्कि जीवन को सहज बनाने के लिए भी यह जरूरी है। ऐसी दिक्कतों को देखते हुए नकदी हस्तांतरण पर व्यय के बाद विकास संबंधी जरूरतों पर खर्च के लिए बहुत कम धनराशि रह जाएगी। नकदी हस्तांतरण पर अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है, क्योंकि अन्य सब्सिडी या समर्थन योजनाओं मसलन सब्सिडी वाली बिजली आदि के उलट समय के साथ इसमें काफी इजाफा हो सकता है, क्योंकि प्रतिस्पर्धी चुनावी कारण इसे प्रभावित करेंगे। उदाहरण के लिए दिल्ली में आप ने चुनाव के बाद नकद सहायता राशि दोगुनी करने का वादा किया है। इसके अलावा नकदी हस्तांतरण योजनाएं केवल राज्यों तक सीमित नहीं हैं। केंद्र सरकार ने भी ऐसी योजनाएं शुरू की हैं। प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि (पीएम-किसान) इसका उदाहरण है। एक संसदीय पैनल ने हाल ही में सुझाव दिया कि इस योजना के तहत दी जाने वाली वार्षिक सहायता को दोगुना कर दिया जाए। अगर इसे लागू कर दिया गया तो इस योजना के लिए आवंटित राशि को भी मौजूदा साठ हजार करोड़ रुपए से दोगुना करना पड़ेगा। बहरहाल, यह कहना मुश्किल है कि सहायता राशि को दोगुना करने से कृृषि क्षेत्र की दिक्कतें समाप्त हो जाएंगी। चाहे जो भी हो, जैसा कि प्रमाण बताते हैं नकद हस्तांतरण तेजी से लोकप्रिय हो रहा है और आने वाले समय में ऐसी योजनाओं में आवंटन बढ़ेगा। ऐसे में यह अहम है कि व्यय का हिसाब रखा जाए। अब तक यह स्पष्ट नहीं है कि आम सरकारी व्यय का कितना हिस्सा ऐसी योजनाओं में जाता है और सब्सिडी आवंटन पर इसका क्या असर हुआ है। रिजर्व बैंक ने राज्यों की वित्तीय स्थिति पर अपने ताजा अध्ययन में कहा है कि राज्य सरकारों को ऐसे आवंटन को रोकना चाहिए, क्योंकि यह उत्पादक व्यय पर असर डालता है। समाज के असुरक्षित तबकों को राज्य के समर्थन को लेकर एक सार्थक बहस की बात करें तो यह आंकना जरूरी है कि आम सरकारी व्यय का कितना हिस्सा सब्सिडी और नकदी हस्तांतरण में जाता है। फिलहाल यही लगता है कि एक ही परिवार केंद्र और राज्य की अलग-अलग योजनाओं के तहत यह मदद पा रहा होगा। मजबूत डेटा विश्लेषण से इसे ताॢकक बनाया जा सकता है और इसे बेहतर लक्षित किया जा सकता है। आने वाले दिनों में केंद्रीय बजट के साथ राज्यों के बजट भी आएंगे। ऐसे में इस पर ध्यान देने की जरूरत है।