लंबे समय से बिहार के सरकारी स्कूलों को लेकर ऐसी आम शिकायत होती थी कि स्कूलों में कहीं शिक्षक नहीं आते तो कहीं विद्यार्थी ही गायब रहते हैं। अगर दोनों की उपस्थिति है तो वहां बैठने के लिए बेंच-डेस्क नहीं है या फिर स्कूल भवन ही नहीं है। कहा तो यहां तक जाता था कि न तो शिक्षकों को पढ़ाने से मतलब है और न ही छात्रों के पढ़ने से वास्ता है। समय-समय पर राष्ट्रीय स्तर पर भी सरकारी स्कूल उपहास के पात्र बनते रहते थे। लेकिन पिछले साल से मुहिम चलाकर शिक्षा पद्धति और गुणवत्ता में सुधार के लिए कई स्तरों पर प्रयास किए गए, जिसके बेहतर प्रयास सामने आए। एकमात्र उद्देश्य था, किसी भी हाल में स्कूलों में पठन-पाठन का माहौल बने। जनवरी से शिक्षा विभाग के ई-शिक्षा कोष ऐप पर छात्र-छात्राओं की ऑनलाइन उपस्थिति दर्ज होगी, इसमें कोई दो राय नहीं कि आधारभूत संरचना में ऐसे बदलावों से स्कूली शिक्षा में गुणात्मक सुधार दिख रहा है। बिहार में शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार की कोशिशें रंग लाई हैं, इसका बड़ा असर छात्र-शिक्षक अनुपात में देखने को मिला है। नामांकन दर में भी अभूतपूर्व बढ़ोतरी दर्ज की गई है। वर्तमान में बच्चों के नामांकन दर 99 प्रतिशत से ज्यादा है। वहीं, स्कूली शिक्षा में बच्चों में ड्राप आउट दर एक प्रतिशत से भी नीचे चला गया है। ये तथ्य भारत सरकार की यू-डायस रिपोर्ट में भी दर्ज हैं। सरकारी स्कूलों में ऐसे लाखों बच्चे थे, जिनके अभिभावकों ने सरकारी सुविधा का लाभ लेने के लिए दोहरा नामांकन करा रखा था। उनका एडमिशन तो सरकारी स्कूलों में था, किंतु वे यहां पढ़ने नहीं आते थे। पढ़ाई वे निजी स्कूलों में कर रहे थे, यहां से सरकारी सुविधाओं का लाभ उठा रहे थे। इन बच्चों की पहचान के लिए बीते साल जुलाई महीने में पहले स्कूलों में 30 दिन तक अनुपस्थित रहने वाले छात्र-छात्राओं का नाम काटा गया, फिर यह अवधि घटाकर 15 दिन कर दी गई। अंततः उन बच्चों के एडमिशन रद्द किए गए, जो बिना किसी सूचना के स्कूल से लगातार तीन दिनों तक गायब थे। हालांकि, इसके साथ ही अभिभावकों की ओर से उचित कारण दिए जाने तथा कुछ शर्तें पूरी करने पर पुनः नामांकन का भी प्रावधान था। ऐसे करीब 25 लाख बच्चों के नाम सरकारी स्कूलों से काटे गए। इनमें कक्षा एक से 12 तक के बच्चे शामिल थे। जाहिर है कि इतनी बड़ी संख्या में एडमिशन रद्द किए जाने से बड़ी सरकारी धनराशि की बर्बादी रोकी गई। फिलहाल बिहार सरकार कक्षा एक से तीन तक के छात्रों को 400 रुपए, कक्षा चार और पांच के लिए 500 रुपए, कक्षा छह से आठ के लिए 1,200 रुपए तथा कक्षा नौ से 12 तक के लिए 2,500 रुपए की वार्षिक छात्रवृति देती है, बशर्ते कि उनकी स्कूलों में 75 प्रतिशत उपस्थिति हो। इसके अलावा बच्चों को मिड-डे मील, पोशाक और पाठ्यपुस्तक दी जाती है तथा कक्षा नौ के बच्चों को 75 प्रतिशत उपस्थिति पर साइकिल दी जाती है। एक अनुमान के मुताबिक प्रति छात्र/छात्रा पर सरकार की ओर से सालाना 12 हजार रुपए खर्च किया जाता है। सरकारी स्कूलों में रिक्तियों को देखते हुए भारी संख्या में शिक्षकों की नियुक्तियां की गईं और यह प्रक्रिया अभी जारी है। शिक्षकों के विशेष प्रशिक्षण की भी व्यवस्था की गई। मिडिल और प्लस-टू स्कूलों के शिक्षकों को गैर शैक्षणिक कार्यों से मुक्ति दे दी गई। वे केवल पढ़ाई पर फोकस करेंगे। शिक्षा विभाग के अधिकारियों को दो पालियों में स्कूलों की नियमित जांच कर शिक्षकों तथा बच्चों की उपस्थिति की मॉनिटरिंग की जिम्मेदारी दी गई है। ऐसा नहीं है कि केवल शिक्षकों की छुट्टियां कम की गईं या फिर उनकी निगरानी बढ़ा दी गईं बल्कि, सर्वश्रेष्ठ सरकारी स्कूलों, प्रधानाध्यापकों, शिक्षकों एवं छात्र-छात्राओं के लिए पुरस्कार योजना शुरू करने का भी निर्णय लिया गया। आठवीं कक्षा से गणित एवं विज्ञान विषय में ओलंपियाड कराने का निर्णय लिया गया, ताकि बच्चों की प्रतिभा को निखारा जा सके । इसी तरह माध्यमिक एवं उच्च माध्यमिक विद्यालयों में कक्षा नौ से 12 तक के विद्यार्थियों को मासिक परीक्षा की उत्तर-पुस्तिकाएं उपलब्ध कराने का निर्णय लिया गया, ताकि प्राइवेट स्कूलों की तरह वे भी अपनी कमियों का आकलन कर सकें।
शिक्षा क्रांति
