भारत सरकार के ग्रामीण विकास मंत्रालय ने महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम 2005 में शुरू किया था, इसे मनरेगा के नाम से भी जाना जाता है। इस योजना का उद्देश्य ग्रामीण परिवारों को साल में सौ दिनों के काम की गारंटी प्रदान करना है। यह काम अलग-अलग कार्यों के लिए दिया जाता है। इसके अलावा इस योजना से जुड़े सदस्यों को अन्य सरकारी योजनाओं जैसे प्रधानमंत्री आवास योजना ग्रामीण का भी लाभ मिलता है। मनरेगा योजना का उद्देश्य गरीब परिवारों को रोजगार और आय का साधन उपलब्ध कराना है। महिलाओं को समान वेतन और रोजगार के अवसर प्रदान करना है। अकुशल शारीरिक श्रम करने वालों को काम उपलब्ध करवाना है। मनरेगा योजना के तहत देश के हर ग्रामीण क्षेत्र के लोग पात्र होते हैं। इसके तहत उन लोगों को काम दिया जाता है जो सेवा से संबंधित कार्य नहीं कर पाते हैं या फिर करने में सक्षम नहीं है। मनरेगा के तहत तालाब बनाने का काम और छोटे पुल निर्माण का काम जैसे कार्य करवाए जाते हैं। मनरेगा मजदूरों की उम्र 18 साल से कम नहीं होनी चाहिए। इस योजना का लाभ वे लोग ले सकते हैं जो किसी भी सरकारी सेवा से नहीं जुड़े हुए हैं। वैसे सभी परिवार के सदस्य इस योजना का लाभ ले सकते हैं जो अपनी रोजी-रोटी कमाने के लिए गांव में ही अवसर ढूंढ़ रहे हैं। महिला और पुरुष दोनों ही इस योजना के तहत काम लेने के हकदार होते हैं। हालांकि एक परिवार से केवल एक व्यक्ति को ही योजना का लाभ दिया जाता है। योजना में महिला और पुरुष दोनों को ही एक समान वेतन प्रदान किया जाता है। इस योजना के लागू हुए करीब 18 वर्ष हो चुके हैं और विभिन्न अध्ययनों ने दिखाया है कि ग्रामीण आजीविका पर इसका प्रभाव कितना सकारात्मक रहा है। यह योजना महामारी के दौरान और समाज के सर्वाधिक संवेदनशील वर्गों को जरूरी सहायता प्रदान करने में विशेष तौर पर उपयोगी साबित हुई। मनरेगा पर एक बार फिर बहस शुरू हो गई है। यह बहस इस योजना के प्रदर्शन पर लिबटेक के हालिया विश्लेषण के बाद आरंभ हुई है, जिसमें दिखाया गया है कि योजना के तहत रोजगार में 2023-24 की पहली छमाही से 2024-25 की पहली छमाही के बीच 16 प्रतिशत से भी अधिक कमी आई है। इस योजना में भागीदारी करने वाले कामगारों की संख्या भी पिछले वर्ष के मुकाबले 8 प्रतिशत कम हो गई और इस दरम्यान पंजीकृृत कामगारों की सूची में 39 लाख नामों की शुद्ध कमी आई। रिपोर्ट में आधार पर आधारित भुगतान प्रणाली (एबीपीएस) के क्रियान्वयन में आ रही समस्याओं का भी जिक्र किया गया और बताया गया कि 24.7 प्रतिशत कामगारों को एबीपीएस के जरिए मजदूरी नहीं मिल पा रही है। किंतु ग्रामीण विकास मंत्रालय ने स्पष्ट किया है कि योजना के अंतर्गत कामगारों के काम के कुल दिनों का सटीक लक्ष्य तय नहीं किया जा सकता, क्योंकि यह योजना मांग पर चलती है और चालू वित्त वर्ष में अब भी चल रहा है। उसने यह भी कहा है कि 2006-07 से 2013-14 तक केवल 1,660 करोड़ कामगार दिवस सृजित हो सके, जबकि 2014-15 से 2024-25 तक 2,923 कामगार दिवस सृजित हुए। इससे संकेत मिलता है कि पिछले दस वर्ष में बहुत अधिक रोजगार सृजन हुआ है। 99.3 प्रतिशत सक्रिय कामगारों के आधार को भी योजना से जोड़ दिया गया है, जिससे बहुत लाभार्थियों को भुगतान बेहतर तरीके से दिया जा रहा है और भुगतान में विलंब कम हुआ है। निस्संदेह मनरेगा ग्रामीण क्षेत्रों में आय तथा आजीविका बढ़ाने के लिए मजबूत कल्याणकारी माध्यम रही है, किंतु रोजगार तलाश रहे लोगों के लिए यह अंतिम विकल्प होनी चाहिए। पिछले कुछ महीनों में इसकी मांग घटी है मगर अब भी यह महामारी से पहले के स्तरों से अधिक है। आवंटन में लगातार इजाफे और अधिक भागीदारी से यही लगता है कि अर्थव्यवस्था पर्याप्त संख्या में लाभकारी रोजगार उत्पन्न नहीं कर रही है, जो नीति निर्माताओं के लिए चिंता की बात होनी चाहिए।