छत्तीसगढ़ स्थित हसदेव की सबसे बड़ी मुसीबत कोयला बन गया है। सरकारें और उद्योगपति पेड़ों को काटकर जंगल के नीचे दबे कोयले को निकालना चाहते हैं, वहीं पर्यावरण कार्यकर्ता और स्थानीय आदिवासी इसका विरोध कर रहे हैं। टकराव की यह स्थिति बीते कई सालों से बनी हुई है। मार्च 2023 में तत्कालीन कोयला एवं खान मंत्री प्रह्लाद जोशी ने राज्यसभा में जानकारी दी थी कि हसदेव जंगल के क्षेत्र में कुल पांच कोयला खदानें आवंटित की गई हैं, इनमें से तीन कोयला खदानें राजस्थान राज्य विद्युत उत्पादन निगम लिमिटेड या कहें कि राजस्थान सरकार को दी गई हैं। मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक राजस्थान सरकार ने पीईकेबी खदान के प्रबंधन और खनन का काम अडाणी समूह को सौंपा है। इस खदान से दो चरणों में कोयले का खनन होना है। छत्तीसगढ़ वन विभाग के आंकड़ों के मुताबिक पहले चरण में 762 हेक्टेयर वन भूमि से कोयला निकाला जा चुका है। इस खनन परियोजना के लिए करीब 80 हजार पेड़ काटे गए थे। दूसरे चरण के अंतर्गत सितंबर 2022 में पहली बार करीब 8,000 पेड़ काटे गए थे।  फिर दिसंबर 2023 में 12,000 हजार से ज्यादा पेड़ गिराए गए। अब बीते 30 अगस्त को तीसरी बार पेड़ों की कटाई शुरू हुई है। तीन दिन तक चले कटाई अभियान में 74 हेक्टेयर वन भूमि से करीब 11 हजार पेड़ काटे गए। स्थानीय आदिवासियों ने शांतिपूर्वक ढंग से इसका काफी विरोध किया, लेकिन पुलिस बल की भारी मौजूदगी के बीच कटाई पूरी कर ली गई। दूसरे चरण के लिए लगभग दो लाख 46 हजार पेड़ काटे जाने की योजना है। अब तक तीन चरणों के तहत इनमें से लगभग 30,000 पेड़ काटे जा चुके हैं, इससे 206 हेक्टेयर जंगल साफ हो गया है। उल्लेखनीय है कि हसदेव अरण्य क्षेत्र में कई गांवों की बसाहट है जहां बड़ी संख्या में मूल निवासी लंबे समय से कोयला खदान परियोजना का विरोध करते आ रहे हैं। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक हसदेव जंगल में पीईकेबी खनन परियोजना के दोनों चरणों के लिए अब तक एक लाख से ज्यादा पेड़ काटे जा चुके हैं। पर्यावरण कार्यकर्ताओं को आशंका है कि दूसरे चरण के लिए अभी दो लाख से ज्यादा पेड़ और काटे जाएंगे। वे चिंता जताते हुए कहते हैं कि इस तरह तो धीरे-धीरे पूरा जंगल ही खत्म हो जाएगा। हसदेव में खनन होने पर समृद्ध जैव विविधता और वन्य प्राणियों का रहवास खत्म हो जाएगा। छत्तीसगढ़ में मानव-हाथी संघर्ष की घटनाएं बढ़ जाएंगी। इसके अलावा बांगो बांध के अस्तित्व पर भी संकट आ जाएगा, जिसके पानी से जांजगीर जिले में चार लाख हेक्टेयर भूमि की सिंचाई होती है। स्थानीय लोगों की पहचान और संस्कृृति, उनके गांव और जंगल के साथ जुड़ी हुई है। हसदेव के कटने से यह पूरी तरह खत्म हो जाएगी। यहां के आदिवासी इस जंगल को अपना देवता मानते हैं। आदिवासी अपनी आजीविका के लिए जंगल पर ही निर्भर रहते हैं। यह उनके लिए बैंक की तरह है। आदिवासियों के अनुसार जब तक जंगल है, हमारे सामने कभी भी खाने-पीने का संकट नहीं आएगा। जंगल कटने से हम सब खतरे में आ जाएंगे। जंगल काटकर कोयला निकालने से पर्यावरण को दोहरा नुकसान होता है। जंगल कटने से वन क्षेत्र कम होता है और पारिस्थितिक संतुलन बिगड़ता है। कार्बन सिंक घटता है और पेड़ों में मौजूद कार्बन, सीओटू के रूप में वायुमंडल में चला जाता है।  दूसरा, कोयला एक जीवाश्म ईंधन है जिसका ज्यादातर इस्तेमाल बिजली बनाने के लिए होता है। जब पावर प्लांट में बिजली उत्पादन के लिए कोयला जलाया जाता है तो बड़ी मात्रा में ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन होता है। हसदेव जंगल के मामले में प्रशासन पर नियमों का पालन नहीं करने के आरोप लगते रहे हैं। अडाणी कंपनी के मुनाफे के लिए सारे नियम-कानूनों को ताक पर रखकर हसदेव का विनाश किया जा रहा है। हसदेव अरण्य का क्षेत्र संविधान की पांचवीं अनुसूची के तहत आता है।  पेसा कानून (1996) और जमीन अधिग्रहण कानून (2013) के अनुसार  इस इलाके में जमीन का अधिग्रहण करने से पहले ग्रामसभा की सहमति लेना जरूरी होता है। इस साल जून में जमीन अधिग्रहण की सहमति लेने के लिए घाटबर्रा गांव में ग्रामसभा हुई थी, लेकिन उसमें प्रक्रिया का ठीक ढंग से पालन नहीं किया गया। लोगों के विरोध को दरकिनार कर खाली रजिस्टर में लोगों के हस्ताक्षर करवा लिए गए। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि सरकार आदिवासियों का जंगल छीनने में लगी है, जो उनके जीवन का सबसे बड़ा आधार है।