2019 में भारत सरकार ने जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा खत्म करने के साथ ही उसे दो केंद्र शासित प्रदेशों में विभाजित कर दिया, तभी से यहां उप-राज्यपाल के जरिए केंद्र का शासन चल रहा है। अब विधानसभा चुनाव होने से एक बार फिर राज्य के शासन में स्थानीय लोगों की भूमिका अहम हो गई है। मतदान की तारीखें करीब आने के साथ ही चुनाव प्रचार में तेजी आ रही है। कांग्रेस पार्टी ने कश्मीर में फारुख अबदुल्ला के नेतृत्व वाली नेशनल कांफ्रेंस के साथ गठबंधन किया है। दूसरी तरफ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) है, जिसका कश्मीर घाटी में राजनीतिक आधार कमजोर है। हालांकि जम्मू के इलाके में यह काफी मजबूत है। 1947 में ब्रिटिश राज खत्म होने और आजादी मिलने के साथ ही भारत दो हिस्सों में बंट गया। कश्मीर का मसला विवादित रहा। इसके बाद के घटनाक्रम में कश्मीर का एक हिस्सा भारत और दूसरा हिस्सा पाकिस्तान के नियंत्रण में चला गया। पाकिस्तान लंबे समय से कश्मीर में संयुक्त राष्ट्र के 1948 में पारित प्रस्ताव को लागू कराने की मांग करता है। इस प्रस्ताव में कश्मीरियों को जनमत संग्रह के जरिए यह बताने का मौका देने की बात है कि वे किस देश के साथ रहना चाहते हैं। भारतीय कश्मीर में 1989 से ही भारत सरकार के शासन के खिलाफ चरमपंथी हमले हो रहे हैं। कश्मीर में चल रही इन गतिविधियों को भारत पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद कहता है। हालांकि पाकिस्तान इससे इनकार करता है। जम्मू-कश्मीर में 2018 से ही स्थानीय सरकार नहीं है। उस वक्त भारतीय जनता पार्टी ने सत्ताधारी क्षेत्रीय दल-पीपल्स डेमोक्रेटिक पार्टी से समर्थन वापस लेकर सरकार गिरा दी थी। इसके बाद विधानसभा भंग कर दी गई। करीब एक साल बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने इलाके का अर्ध-स्वायत्त दर्जा खत्म कर इसे एक केंद्रशासित प्रदेश बना दिया। इसके नतीजे में कश्मीर को अपना झंडा, क्रिमिनल कोड, संविधान के साथ ही जमीन और नौकरी के मामले में मिला संरक्षण खोना पड़ गया। प्रदेश को दो केंद्र प्रशासित राज्यों-लद्दाख और जम्मू-कश्मीर में बांट दिया गया। सत्ता सीधे केंद्र सरकार के हाथ में चली गई। भारत सरकार को यहां के लिए प्रशासक नियुक्त करने और बगैर चुनाव के अधिकारियों की मदद से राज्य का प्रशासन चलाने का अधिकार मिल गया। इसके बाद से यहां कई कानूनी और प्रशासनिक बदलाव हुए हैं जिसमें स्थानीय लोगों की कोई खास भागीदारी नहीं रही। स्थानीय लोगों की सबसे ज्यादा नाराजगी कथित रूप से नागरिक अधिकारों और मीडिया पर शिकंजे को लेकर रही है। दूसरी तरफ भारतीय अधिकारी बार-बार इस कदम को नया कश्मीर बनाने की कवायद बताते हैं। उनके मुताबिक राज्य में अलगाववाद से निपटने और आर्थिक विकास को बढ़ावा देने के साथ ही इलाके को पूरी तरह भारत के साथ एकजुट करने के लिए यह जरूरी था। जम्मू-कश्मीर में चुनाव 18 सितंबर से 1 अक्तूबर के बीच होंगे जबकि वोटों की गिनती 8 अक्तूबर को होगी। सैद्धांतिक रूप से राज्य का प्रशासन स्थानीय विधानसभा के जरिए चुने गए मुख्यमंत्री के पास आ जाएगा। मुख्यमंत्री के पास एक मंत्रिपरिषद होगी और यह कुछ वैसा ही होगा जैसे 2018 के पहले था। हालांकि इन चुनावों से बनने वाली नई सरकार के पास पहले जैसी वैधानिक शक्तियां नहीं मिलेगी। जम्मू-कश्मीर चुनाव के बाद भी एक केंद्रशासित प्रदेश ही बना रहेगा। चुनी हुई सरकार के पास केवल शिक्षा और संस्कृृति जैसे मसलों पर नाममात्र के ही अधिकार होंगे। अहम फैसले केंद्र सरकार ही करेगी। प्रदेश की नई सरकार को अधिकार देने के लिए उसके राज्य के दर्जे को बहाल करना होगा। नेशनल कांफ्रेंस और पीपल्स डेमोक्रेटिक पार्टी ने कश्मीर की अर्ध-स्वायत्तता को वापस दिलाने के लिए कानूनी और राजनीतिक लड़ाई लड़ने की बात कही है। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि जम्मू व कश्मीर में बहुत कुछ बदल गया है। भाजपा किसी तरह यहां की सत्ता पर हाबी होना चाहती है, परंतु नेशनल कांफ्रेंस और कांग्रेस के बीच समझौते से उसकी उम्मीदों पर पानी फिरता दिख रहा है, परंतु सच्चाई तब सामने आएगी, जब मतपत्रों की गिनती होगी।