कोलकाता में महिला डॉक्टर के साथ बलात्कार और बाद में उसकी हत्या के खिलाफ इन दिनों पूरे देश में आंदोलन चल रहा है। इस हत्या के खिलाफ सिर्फ डॉक्टर समाज ही नहीं, बल्कि आम लोग भी सड़क पर उतर रहे हैं। मामले की नजाकत को देखते हुए कलकता हाईकोर्ट ने मामले की सीबीआई जांच दे दी है, जबकि ममता सरकार इसकी सीबीआई जांच नहीं चाहती थी। मृतका और उसके दुखी परिजन के प्रति देशभर में सहानुभूति है। अधिकांश लोग चाहते हैं कि दोषियों को कड़ी से कड़ी सजा मिले। जानकार बताते हैं कि निर्भया गैंगरेप के बाद केंद्र सरकार ने कानूनी प्रक्रिया में बड़े बदलाव किए थे, लेकिन कई लोगों का ऐसा मानना है कि इन बदलावों के बावजूद जमीन पर स्थिति बहुत कम बदली है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी)के मुताबिक उस हमले के समय भारत में साल भर में बलात्कार के करीब 25,000 मामले रिपोर्ट किए जा रहे थे। आज हर साल 30,000 से ज्यादा मामले दर्ज कराए जा रहे हैं। बस 2020 में कोविड-19 महामारी और तालाबंदी की वजह से यह आंकड़ा काफी नीचे गिर गया था। 2016 में तो बलात्कारों का सालाना आंकड़ा 39,000 तक पहुंच गया था। एक और सरकारी रिपोर्ट के मुताबिक 2018 में देशभर में हर 15 मिनट में एक बलात्कार रिपोर्ट किया जा रहा था। 2022 वो आखिरी साल है जिसके लिए एनसीआरबी के आंकड़े उपलब्ध हैं और उस साल 31,000 से ज्यादा मामले दर्ज कराए गए थे। आंकड़े नीचे आने का नाम ही नहीं ले रहे, बावजूद इसके की सरकार ने सजा और कड़ी कर दी है। अब बलात्कार के लिए न्यूनतम सजा 10 साल जेल है। अधिकतम सजा आजीवन कारावास और अगर पीड़ित 12 साल से कम उम्र की हो तो मौत की सजा का प्रावधान है। और भी कई कानूनी सुधार लागू किए गए हैं, जैसे बलात्कार की परिभाषा को और व्यापक बनाने के लिए उसमें नॉन-पेनिट्रेटिव एक्ट को भी शामिल किया गया है। इसके अलावा फास्ट-ट्रैक अदालतें बनाई गई हैं और ऐसे अपराधों के लिए 16 साल से ऊपर के मुल्जिमों पर भी वयस्क की तरह मुकदमा चलाने का प्रावधान लाया गया है। दूसरी ओर जानकार बताते हैं कि अभी भी कुछ बलात्कारियों को लगता है कि वो अपराध करके बच सकते हैं। कानून को समान रूप से लागू नहीं किया जा रहा है। इसके अलावा पुलिस का काम भी बहुत खराब है। इस अवधि में काफी समय तक पांच गंभीर अपराधों में से दूसरी सबसे नीची दर थी। इन पांच अपराधों में हत्या, अपहरण, दंगा करना और गंभीर चोट पहुंचना शामिल हैं। निर्भया कांड के दस साल के बाद महिलाएं कितनी सुरक्षित है? सच्चाई तो यह है कि जबसे सजा और कड़ी की गई तब से कुछ जज दोषी करार देने में ज्यादा झिझकने लगे। उन्होंने बताया कि अगर किसी जज को लगता है कि कोई संदेह है और वो किसी ऐसे सबूत के आधार पर किसी को आजीवन कारावास या मौत की सजा दे रहे हैं जो न्यायिक कसौटी पर पूरी तरह से खरा नहीं उतरेगा, तो वो उस व्यक्ति को बरी करने के लिए मजबूर हो जाते हैं। उन्होंने आगे कहा- और अगर जज के पास उस मामले में अपने विवेक का इस्तेमाल करने की स्वतंत्रता है तो वो कम सजा देकर यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि उसे सजा तो हो, लेकिन कई जानकारों के अनुसार इस समस्या के समाधान के लिए और भी बदलावों की जरूरत है। पुलिस की जांच प्रक्रिया को और बेहतर बनाना होगा ताकि सबूत ठीक से इकठ्ठा किए जा सकें और मामला जब अदालत में पहुंचे तो सबूतों के अभाव में प्रॉसिक्यूशन का पक्ष कमजोर ना पड़े। इसके अलावा यह समझना भी जरूरी है कि बलात्कार और महिलाओं के खिलाफ अन्य अपराध सिर्फ एक कानूनी समस्या नहीं, बल्कि एक सामाजिक समस्या भी है और इस लिहाज से इस समस्या के समाधान के लिए समाज में बदलाव भी जरूरी है। इस बदलाव के मद्देनजर क्रांतिकारी कदम उठाने की जरुरत है। उम्मीद है कि आने वाले वक्त में लोगों की चेतनाएं जगेंगी और लोग ऐसे अपराधियों के खिलाफ आंदोलन करने से भी बाज नहीं आएंगे। समय का सदुपयोग करते हुए बेटियों के खिलाफ होने वाली हरेक गतिविधियों पर अंकुश लगाने की जरुरत है।
कितनी सुरक्षित हैं बेटियां?
