एक बार की बात है। दोपहर का समय था। महात्मा गांधी अपने आश्रम में थे। उनके पास एक कार्यकर्ता आया। उसने देखा कि बापू बड़े परेशान हैं, चिंतित मुद्रा में कुछ ढूंढ़ रहे हैं। आखिर वह कौन सी चीज है जो बापू इतने परेशान होकर ढूंढ़ रहे हैं? उनकी परेशानी देखकर जब कार्यकर्ता से रहा न गया तो उसने पूछ ही लिया, ‘बापू! आप क्या ढूंढ़ रहे हैं? बहुत देर हो गई। बहुत परेशान हैं। ऐसी कौन सी वस्तु है, जिसके न मिलने से आप इतने परेशान हो रहे हैं?’ बापू ने बड़ी गंभीरता से कहा ‘अरे भाई, मेरी पेंसिल कहीं नहीं मिल रही है। पता नहीं किधर चली गई?’ यह सुनकर कार्यकर्ता को बड़ी हैरानी हुई कि बापू एक पेंसिल को इस तरह ढूंढ़ रहे हैं। उसने इस बात को सहजता से लेते हुए कहा, ‘बापू, यह दूसरी पेंसिल ले लीजिए। अभी इसी से काम चला लीजिए। बाद में वह भी मिल जाएगी।’ यह कहते हुए उस कार्यकर्ता ने बापू की ओर नई पेंसिल बढ़ा दी। ‘अरे भाई, तुम जानते नहीं, वह साधारण पेंसिल नहीं है। वह पेंसिल मुझे मद्रास में मि. नरेसन के पुत्र ने दी थी। वह पेंसिल मैं खो नहीं सकता।’ कहते हुए बापू फिर अपनी खोज में जुट गए। कुछ समय की खोज के बाद आखिर पेंसिल मिली, तभी बापू को चैन मिला। जानते हैं, वह पेंसिल कैसी थी? कितनी बड़ी थी? वह पेंसिल सिर्फ एक इंच लंबी ही बची थी। बापू ने उस पेंसिल को दिखाते हुए कहा, ‘यह पेंसिल का टुकड़ा मात्र नहीं है। एक बालक की प्रेम भेंट है। यह एक भावनात्मक उपहार है।’ उस कार्यकर्ता की समझ में बात आ गई कि इस युग का एक महानायक मोहनदास करमचंद गांधी उस पेंसिल के टुकड़े को क्यों ढूंढ़ रहे थे। सचमुच महात्मा गांधी के विचार ही नहीं, उनका जीवन भी एक संदेश है।