इलाके के इकलौते अस्पताल का इकलौता डॉक्टर कौतुक मरीज देखने वाले हॉल में अपनी कुर्सी पर बैठा था और उसके आगे की मेज के पार वाली कुर्सियों पर उसके तीन लंगोटिया दोस्त बैठकर गपियाए जा रहे थे। जाहिर है तीनों धन-धान्य और रौब दाब के मामले में असाधारण लोग थे। इसलिए डॉक्टर के मुंह लगे थे। समय मरीज देखने का था, सो हॉल के बाहर कई कराहते-बिसूरते, हाल बेहाल लोग इंतजार में बैठे थे। पर डॉक्टर एंड पार्टी को इसकी कोई परवाह नहीं थी। परवाह करने वाला था भी तो वह इस अस्पताल का मेहतर छोटन था, जो अपनी सीमा में बहुत तुच्छ था। अत: इलाज संबंधी कोई उपक्रम इसके अधीन नहीं था। यारों की गप्पबाजी इस वक्त छोटन पर ही केंद्रित थी।
कुछ देर पहले उसने इन्हें टोक देने की हिमाकत की थी। बात तनिक बढ़कर हुज्जत में बदल गई थी। उसका पड़ोसी बेंगा मांझी कई दिनों से बद से बदतर हालत में घिरता जा रहा था। उसके उल्टी दस्त बंद होने का नाम ही नहीं ले रहे थे। उचित ध्यान के अभाव में सही दवा नहीं दिए जाने के कारण कई कष्ट उस पर आ टूटे थे। छाती में दर्द तेज बुखार भी शुरू हो गया था। आज उसका तड़पना बिलखना चरम पर पहुंच गया था। हालत देखी न गई तो छोटन बेजब्त हो उठा, आप कैसा डॉक्टर हैं? रोगी तड़प-कराह मर रहा है और आप यहां मजलिस जमा रहे हैं। डॉक्टर कौतुक इस दु:स्साहस पर एकदम उफन पड़ा, लग तो ऐसा रहा है कि तुम्हीं मर जाओगे इसके बदले में। अगर वह तुम्हारा बाप लगता है तो उसे तुम शहर क्यों नहीं ले जाते? जाओ, ले जाओ यहां से अब हमसे कंट्रोल नहीं होगा। बेहूदा, अनपढ़, जाहिल! मुझ पर हुक्म चला रहा है, अपनी औकात भूल गया है।
छोटन के लिए उसकी ऐसी गैरजिम्मेदाराना और अमानवीय हरकत आए दिन की बात थी। उसने धिक्कारते हुए फिर पूछा, यही जवाब देना था तो क्या पहले फुर्सत नहीं निकाल सकते थे? छि: छि: आपसे अच्छा तो वह जुल्ली मियां कसाई है, जो दिन में भले ही गाय गोरू काटता है, लेकिन शाम को गरीबों मजलूमों के लिए मुफ्त में हकीमी करता है। डॉक्टर ने आंखें तरेरीं। छोटन बिना इसकी परवाह किए घृणा दिखाकर चल पड़ा। इस दृश्य पर त्रिमूर्ति मित्रों जाटो सिंह, गंगा सिंह और बच्चू सिंह के नथुने एक साथ फड़क उठे। जाटो ने बत्तीसी रगड़ते हुए कहा, ससुरे इस डोम की यह मजाल। क्या डॉक्टर बहुत मन बढ़ा दिए हो इसका! गाली सुनकर बरामदे में छोटन के पांव ठिठक गए।
गंगा सिंह भी अपने भीतर का उबाल प्रकट कर बैठा, डॉक्टर यह हमारी तौहीन है कि वह तुम्हारे मुंह लगकर बात करे इसी वक्त उसका मुंह तोड़ देना चाहिए हमें। बच्चू सिंह भी अपना तैश प्रकट करने लगा, बोलो तो आज ही इस मरदूद की झोंपड़ी में आग लगाकर पूरे परिवार को जलाकर स्वाहा कर दें। तुम लोग इसे नहीं जानते यार। डॉक्टर ने छोटन की ढठिता और अपनी लाचारी की समीक्षा की - यह डोमवा टिका कैसे है यहां? इसकी जो संकर नस्ल की पांच पांच खूबसूरत बेटियां हैं, इनमें दो को तो जानते ही हो, पहले ही भाग गईं। अब तीन बची हैं, मुखिया जी इन तीनों पर फिदा हैं। एक को इसलिए ये समझ लो कि जब तक मुखिया बना रहेगा, यह नछत्तर अस्पताल की छाती पर कुण्डली मारकर बैठा रहेगा। छोटन का जी चाह रहा था कि इस नृशंस, जलील और जल्लाद डॉक्टर की गर्दन दबा दे, मगर आपे से बाहर होना न उसका संस्कार था न अख्तियार।
उसकी हैसियत और वजूद यही था कि वह बड़ी से बड़ी फजीहत सह सकता था, बद से बदतर जलालत झेल सकता था गंदी और सड़ी पची गाली पचा सकता था। छोटन खून का घूंट पीकर बढऩा ही चाहता था कि जाटो की लिजलिजी हसरत ने फिर उसके पांव रोक लिए और उसके शब्द कानों में गर्म शीशे की तरह घुस गए, अरे डॉक्टर, तो हम लोग क्यों मुंह देख रहे हैं? इतनी माकूल जगह है यह अस्पताल उसकी बीमार लड़कियों को पटाकर इलाज करो या रइस बीमारी के तो हम लोग भी डॉक्टर हैं। पानी तो मुंह में बहुत दिनों से आ रहा है, लेकिन यह छोटना बहुत बड़ा घाघ है। फिर भी चलो एक पुरजोर कोशिश करके देखते हैं। अगले इतवार को तय रहा विश्वास है इसकी एक न एक लड़की को जरूर पटा लूंगा। यह जो बेंगा मांझी है न जो आज मरने वाला है, इसकी जोरू को लुक्खा ने पटा रखा है, उसके जरिए दो तीन चुनी हुई मुसहरनी आसानी से बहला फुसला कर लाई जा सकती हैं। छोटन का दिल दहल गया था..अस्पताल की प्रकृृतिजन्य दयालुता, कोमलता सहानुभूति और करुणा पर व्याभिचार एवं बेहयाई का इतना बड़ा ताण्डव। अब उसमें आगे कुछ भी सुनने का धैर्य नहीं रह गया था। बेंगा मांझी की क्षण-क्षण बिगड़ती हालत का कोई निराकरण ढूंढऩा उसका प्राथमिक दायित्व था। यहां अब उसे रखने की कोई तुक नहीं थी।
मुसहरी के तीन लोगों की मदद से उसे लेकर नवादा चल पड़ा। कल ही उसकी घरवाली सूप और खचिए आदि बेचकर सौ रूपए लाई थी। नवादा अनुमण्डल के सदर अस्पताल की भी यों कोई भरोसेमंद साख नहीं थी। यहां के बहुतेरे लापरवाह कारनामे गांवों तक पहुंचते रहे थे। पर दूसरा विकल्प भी भला अब क्या था? छोटन ने गौर किया कि यहां जितने डॉक्टर थे, वे अस्पताल के अपने कक्ष में बैठकर आने वाले मरीजों से बेहतर इलाज के लिए अपने प्राईवेट क्लीनिक में आने की ताकीद कर रहे थे। यहां देखने के नाम पर महज खानापूर्ति की जा रही थी। वार्ड की स्थिति तो गौहाल से भी बदतर थी। गंदगी और दुर्गंध के अलावा यहां हर चीज नदारद थी। गरीबी रेखा नहीं बल्कि गरीबी बिंदु से भी नीचे रहने वाले बेउपाय लोग अपनी बीमारी को लिए फर्श पर गेनरा-गुदडी या पुआल बिछाकर अपने किसी परिजन की निगरानी में बदहवास पसरे हुए थे। कौन कह सकता था कि यह अस्पताल है? इससे कई गुना बेहतर कब्रगाह या कत्लगाह होता है, जहां मृतकों या मारे जाने वाले लोगों के लिए भी इससे अच्छे इंतजाम होते हैं।
बहरहाल बेंगा मांझी के लिए इसी नर्क में कहीं न कहीं उचित इलाज की उम्मीद करनी थी इस तरह कि सौ रूपए में ही मामला सलट जाए। मगर छोटन को क्या पता कि जोंकों की इस नगरी में सौ रूपए तो सिर्फ सूंघने में ही निकल जाएंगे। खून जांच और एक्सरे में ही पिचहत्तर रूपए पार हो गए। डॉक्टर की फीस और दवा के लिए पच्चीस रूपए कुछ भी नहीं थे। इस सरकारी अस्पताल के चप्पे चप्पे में व्याप्त बेहयाई पर छोटन हैरान था। मगर बेंगा मांझी शायद इतना बड़ा बेहया नहीं था कि दवा खरीदने के नाम पर छोटन को नंगा कर परीक्षा लेता। बेचारा पहले ही चल बसा। छोटन की आत्मा एकदम चीत्कार उठी थी कि बेंगा को न कैंसर था, न एड्स, न टीबी-महज दस्त और बुखार से पीडि़त था, फिर भी दो दो अस्पताल से गुजर कर भी वह इलाज नहीं पा सका। वह सिहर उठा था कि आज गरीबों के लिए इलाज किस कदर हास्यास्पद और मुश्किल हो गया है। कल इन्हें फोड़े-फुंसी, सर्दी-खांसी और सरदर्द से भी मरना पड़ सकता है। मानो इनके लिए हर रोग ही कैंसर और एड्स बनने जा रहा है।
अस्पताल के गेट पर ही अर्थियां बिक रही थीं। जैसे वे पहले ही चीख चीख कर यह बता रही हों कि जब इस अस्पताल में भीतर जा ही रहे हो तो हममें से किसी एक को पसंद करते जाओ। शायद इस अस्पताल में आने वाले साठ प्रतिशत गरीब ग्रामीणों का यही हश्र था। हर स्तर और सज धज की अर्थियां यहां उपलब्ध थीं। छोटन ने बचे हुए पच्चीस रूपए से अर्थी खरीद ली। क्या संयोग था कि वह अपने साथ तीन आदमी लेकर आया था। मानो कंधा देने की पूरी तैयारी कर आया हो, नहीं तो उसे भाड़े पर कुछ कंधे लेने पड़ जाते। बेंगा की घरवाली जो इन दिनों लुक्खा सिंह द्वारा जबरन बनाई हुई रखैल थी, अब स्थायी तौर पर मुक्त हो गई। लुक्खा को उसके एवज में बेंगा का खर्च भी प्रायोजित नहीं करना पड़ेगा। रोज रोज अधा पौआ पिलाना पड़ता था...अंतिम में पता नहीं क्या मिला कर पिला दिया कि बेंगा को इसके बाद पीने की जरूरत ही नहीं पड़ी। उपेक्षा की निरतंरता पहले ही उसकी नियति थी, अस्पताल ने इसे चरम पर पहुंचा दिया। चलो अच्छा हुआ कि इसके मरने से कोई विधवा न हुई कोई अनाथ न हुआ।
चारों ने अर्थी पर बेंगा का शव डाल दिया और राम नाम सत्य है कहते हुए वे पैदल चल पड़े। जबकि बेंगा ने जो जिंदगी जी थी उससे राम नाम सत्य नहीं सर्वथा असत्य जान पड़ता था। रास्ते में अजीब अजीब ख्याल छोटन के भीतर बनते और मिटते रहे। इन्हीं में एक था अपने जैसे मजलूम चेहरों के लिए एक हमदर्द और रहमदिल डॉक्टर की तलाश। उसने यह भी सोचा कि क्यों नहीं वह अपने नन्हा को पढ़ा-लिखा कर डॉक्टर बना दे। अगर वह ऐसा कर सका तो सिर्फ अपना ही नहीं पूरे जवार का उद्धार हो सकेगा। अगले ही क्षण उसके होंठ खुद पर व्यंग्य से मुस्कुरा दिए। खाने की खर्चा नहीं और ड्योढ़ी पर नाच! जाति का डोम और बेटा डॉक्टर! जो भी सुनेगा हंसी से लोट-पोट हो जाएगा। छोटन ने झेंप कर इस विचार को झटक दिया। कंधे पर अर्थी है और वह क्या अनाप-शनाप सोचे जा रहा है। गांव में लाश पहुंची तो किसी को कोई अचरज नहीं हुआ....कहीं कोई सुगबुगी या हलचल नहीं हुई।
जैसे किसी आदमी की नहीं कीड़े-फतिंगे की मौत हुई थी, जिस पर गम, स्यापा, शोक, अफसोस करने की कोई परिपाटी नहीं। कितना अकेला था बेंगा कि आज उसकी मौत पर कोई रोने वाला नहीं। जो हल जोत रहे थे, जोतते रहे...जो कुंए पर लाठा चला रहे थे वे चलाते रहे जो खलिहान में दौनी कर रहे थे करते रहे। मतलब किसी ने अपने धंधे को स्थगित करने की जरूरत नहीं समझी। आदमी आदमी में कितना फर्क होता है....चाहे वह राजतंत्र हो या जनतंत्र। एक वह भी आदमी होता है जिसके मरने से सारा देश बंद करा दिया जाता है, उसका अंतिम संस्कार देखने के लिए पूरे मुल्क को फुर्सत बहाल करा दी जाती है। छोटन अब समझ गया था कि सामाजिक न्याय के हंगामे में एक गरीब मामूली आदमी की जान का कोई मूल्य नहीं। वह तो मात्र एक कीट पतंग है।