सरोज बची हुईं मिठाईयां नौकरों में बांट रही थी और बहू रानी शीतल हमेशा की तरह नौ बजे उठ कर आई थी। सास को काम करते देख कहने लगी, 'मम्मी जी यह त्योहार भी कितने बोरिंग होते हैं। शुरुआत में ढेर सारी तैयारियां करो और फिर अंत में भी उतना ही काम।' सरोज उससे कोई बहस नहीं करना चाहती थी क्योंकि बाद में तो खुद का ही मन खराब होता है। थोड़ा मुस्कुरा कर इतना ही कहा, 'तुम नहा-धोकर आओ । तुम्हें ऑफिस के लिए देर हो रही है। मैं तुम्हारा टिफिन लगवाती हूं।' उसके जाते ही अतीत की सारी बातें सामने आने लगी। तीन बच्चों की मां थी सरोज और पूरे मोहल्ले में त्योहार पर सबसे ज्यादा सजती थी। सास बाद में नजर उतारा करती थी। ससुर को गोंद के लड्डू बहुत पसंद थे और पतिदेव को दाल का हलवा। त्योहार आते ही चाव चढ़ जाता था और स्वादिष्ट बनाने में कोई कसर नहीं रहती थी। शीतल आते ही रसोईए का आगमन हो गया था। उसे रसोई में जाना बिल्कुल पसंद नहीं था और घरवालों को सारा काम अकेले सरोज करें यह गंवारा नहीं था। बनता अब भी सबकुछ है मगर खुद के हाथों से बनाकर खिलाकर तारीफ नहीं बटोर पा रही थी सरोज। क्या जमाना आ गया खुद के घर में त्योहार पसंद नहीं और होटलों में जबर्दस्त फेस्टिवल गेट-टुगेदर की तैयारियां चल रही है। उस गेट-टुगेदर में टे्रडिशनल ड्रेसेज भी पहन लेगी। बस घर पर सास से ही दुश्मनी रहती है। यह सब सोच ही रही थी कि शीतल आ गई। नाश्ता करते करते कहने लगी, 'मम्मी जी, आज की पार्टी में आप नथ पहनेंगी तो अच्छा लगेगा। सोचती हूं, मैं भी पहन ही लेती हूं।' सरोज मन ही मन मुस्कराई और उसे उसका टिफिन थमा दिया!!